धुंध छंट गई

“बेटा, पुरवा की इंजीनीयरिंग खत्म होने आई, अब उसका रिश्ता पक्का करो, जल्दी से जल्दी,” अपनी दक़ियानूसी सोच, जिद्दी और मनमाने स्वाभाव के चलते उस के दादाजी ने अपने बेटे रमनजी से रट लगा रखी थी कि पोती की इंजीनीयरिंग खत्म होते ही उसका विवाह कर दिया जाय।

बरसाती झरने सी झर झर चहकती चंचल, बेहद मेधावी, पिता और दादू की लाड़ली पुरवा इंजीनियरिंग खत्म कर किसी प्रतिष्ठित संस्थान से ऐमबीए कर एक ऊंचे मुकाम तक पहुंचना चाहती थी।

उस ने इस मुद्दे पर पिता को बड़ी संजीदगी से बेलाग कह दिया था, “मैं अभी हर्गिज़ विवाह नहीं करूंगी। मुझे हर हाल में ऐमबीए करना है।”

बेटी की आँखों में पल रहे सपनों की भ्रूण हत्या की हिम्मत नहीं थी उनमें। दूसरी ओर वृदध जनक की खुलेआम अवमानना करने का साहस भी नहीं था उनमें।

वह बेहद धर्म संकट में थे।

पिता ने एक बार पहले भी अपनी इकलौती बेटी, पुरवा की बूआ की पढ़ाई उसकी मर्जी के विरुद्ध रोक कर कम उम्र में उसका विवाह कर दिया था, लेकिन बीस वर्ष की अल्पायु में ही उसे उसके पति ने तलाक दे दिया, और किसी तरह लोगों के कपड़े सिल कर वह घोर संघर्ष में गुजर बसर कर रही थी।

आँखों के आगे उसका बदहाल, दीनहीन चेहरा कौंध उठा।

अनिश्चय का कोहरा छंट गया।

अनायास वह पिता से कह उठे, “बाबूजी, पुरवा ऐमबीए जरूर करेगी।”