स्वार्थ

“क्या ले आई सुखवंती? अरे इतना सामान! क्या-क्या दिया तेरी नई मालकिन ने?” मकर संक्रांति के दिन एक घर से मिले दान दक्षिणा के बड़े से भारी थैले को देखते हुए घर घर खाना बनाने वाली सुखवंती की सास ने उससे पूछा।

“अम्मा, यह देखो, दाल, चावल, गुड़, गज़क और असली घी। मेरे लिए साड़ी, शॉल और मोजे और अम्मा ये क्रीम, पाउडर, सिंदूर, मेहंदी और न जाने क्या-क्या दिया है।”

“हां री, बहुत दिया तेरी नई मालकिन ने। कभी तेरे साथ मैं भी उनसे राम-राम करने उनके घर जरूर जाऊंगी।”

“क्यों री, यह तेरी नई मालकिन क्या बहुत रईस है? जरूर अपना घर का कारोबार होगा। तभी इतना कुछ हम गरीबों को दिया।”

“ना अम्मा। सरकारी नौकरी थी साहब की। पर मालकिन वास्तव में बहुत दानी हैं। कल ही तो मुझसे कह रही थीं, मेरे दोनों बेटे बहुत दूर सात समुंदर पार रहते हैं। उन्हीं की कुशल मंगल खातिर इतना दान धर्म करती हूं।”

“ए री मैया, कुसल मंगल खातिर दान पुण्य! राम...राम..., जे दुनिया कहां जाएगी? दान धरम में भी स्वारथ!!”