चांद मुस्कुरा उठा

खिड़की से छन कर आते झीने उजास से विधु की नींद खुली। खिड़की के पार भगवान भास्कर अपनी मद्धम लालिमा बिखेरते हुए धीमे-धीमे उदित हो रहे थे। बासंती बयार और पक्षियों का मंद मंद कलरव उनके तन मन को बेहद सुकून दे रहा था।

विधु ने एक अंगड़ाई लेते हुए बिस्तर छोड़ा, और घर का मुख्य दरवाजा खोल अखबार लेकर वापस बिस्तर में अपने कंबल की गर्माहट में दुबक गये। पार्श्व में निद्रामग्न जीवन सहचरी रैना शायद कोई सपना देखते देखते मुस्कुराती सी प्रतीत हो रही थी।

"रैना, रैना उठो भई, सुबह हो गई।"

सुबह सवेरे रैना का मासूम, शिद्दत का खूबसूरत चेहरा देख मन में ख्याल आया, 'साठ वर्ष की होने आई, लेकिन इसके चेहरे की भोली मासूमियत अभी तक पहले की तरह बरकरार है।'

उन्होंने उसे फिर से झिंझोड़ा, "रैना, उठो ना," और फिर अखबार में आंखें गड़ा दी।

आज 14 फ़रवरी थी। अखबार में आज वैलेंटाइन्स डे संबंधित कांटेन्ट प्रमुखता से छाया हुआ था।

'तो आज वैलेंटाइन्स डे है,' चेहरे पर एक मृदु मुस्कान के साथ उन्होंने सोचा।

वैलेंटाइन्स डे से उनकी खास यादें जुड़ी हुई थीं। 35 बरस पहले आज ही की तारीख को तो उन्होंने रैना को प्रोपोज़ किया था।

रैना और वह यूनिवर्सिटी में एक ही कक्षा में थे। वह उसकी सादगी भरी खूबसूरती और नेकसीरती पर जी जान से फिदा हो गए थे।

शादी के बाद 35 वर्ष घर, परिवार, बच्चे, नौकरी, नाते रिश्तेदारी, बच्चों की पढ़ाई, करियर की उलझनों में मानो पंख लगा के उड़ गये।

दोनों बेटियां ऊंची पढ़ाई कर शादी कर अपने-अपने नीड़ में जा बैठीं और वह और रैना अपने घोंसले में फिर से तनहा हो गए।

जीवन की इस सांध्य बेला में वे एक दूसरे के साथ बेहद खुश थे, कि तभी अल्ज़ाइमर के रोग ने रैना को धीरे-धीरे अपने चंगुल में जकड़ना शुरू कर दिया। दिन पर दिन उसका मर्ज बढ़ता गया। बीमारी की शुरुआत यदा-कदा बातों के भूलने से हुई थी, लेकिन पिछले एक वर्ष से उसका रोग बेहद गंभीर होता जा रहा था। वह अब कई कई दिन तक दीन दुनिया से बेखबर रहती। उसे कुछ भी याद न रहता, यहां तक कि कई बार वह विधु को भी पहचान नहीं पाती।

विधु डॉक्टर के कहे अनुसार पुरानी बातें याद करा के उसे विस्मृति के अंधे कुएं से वापस निकालने का भरसक प्रयास करते, और वह कुछ दिनों के लिए सामान्य हो भी जाती, लेकिन कुछ दिन बीतते बीतते वह फिर से स्मृतिलोप के अंधेरे में गुम हो जाती।

उन दिनों भी विस्मृति के शिकंजे में कसी हुई वह अपनी ही दुनिया में डूबी हुई थी, कि विधु ने उसे अपने प्रपोज़ल डे की याद दिलाने के उद्देश्य से उससे कहा, "रैना, यह लो तुम्हारा गिफ्ट।"

"गिफ्ट कैसा गिफ्ट? क्यों आज क्या है," उसने सवालिया दृष्टि से अपने पति से बेहद निर्लिप्तता से पूछा।

"आज वैलेंटाइन्स डे है रैना। तुम इसे खोलो तो सही। देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं," विधु ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा, लेकिन उन आंखों में बसे सूनेपन को देखकर वह एकबारगी को मायूसी से भर उठे। फिर अगले ही क्षण अपनी हताशा को झटक वह स्नेहसिक्त स्वरों में पत्नी से बोले, "जल्दी खोलो ना रैना, फिर बताओ तुम्हें मेरा यह गिफ्ट कैसा लगा?"

"हां... खोलती हूं”, उसने तनिक उनींदे स्वरों में पति को जवाब दिया और पैकेट को थामे वीरान निगाहों से उन्हें देखने लगी।

विधु ने बेहद दुलार से पैकेट पर बंधे हुए रिबन को खोलते हुए पत्नी से कहा, "ऐसे", और रैना आज्ञाकारी बच्ची की तरह उसे देखकर मुस्कुराई, और फिर पैकेट खोलने का उपक्रम करने लगी।

पैकेट के भीतर एक हल्के गुलाबी रंग की बेहद खूबसूरत साड़ी थी, जिसे देखकर रैना की आंखों में पल भर के लिए कुछ अबूझ कोमल भाव कौंधे, लेकिन अगले ही पल गायब हो गए।

यह देखकर विधु ने एक लंबी सांस ली, लेकिन फिर बेहद धैर्य से उससे कहा, "रैना, अब इस साड़ी की तह तो खोलो जरा। " रैना उजाड़ निगाहों से साड़ी को देखती रही। विधु ने इस बार साड़ी की पहली तह खोलते हुए उससे कहा, "ऐसे”, और रैना ने धीरे-धीरे तनिक कांपते हाथों से साड़ी को परत दर परत खोला।

साड़ी की भीतरी परत में एक सुर्ख, अधखिली लाल गुलाब की कली अपनी पूरी शान से इठलाती हुई रखी थी। उस कली पर नजर पड़ते ही वह अचानक खुशी से झूमते हुए अपनी खनकती हुई आवाज में चिल्लाई, "विधु...विधु... बरसों पहले तुमने अपनी फर्स्ट नाइट पर मुझे यही साड़ी यूं ही दी थी ना? क्या आज हमारी शादी की वर्षगांठ है? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा।"

"नहीं रैना, आज वैलेंटाइन्स डे है। यानी कि अपना प्रपोजल डे, याद आया?" विधु ने बड़ी अधीरता से उसकी आँखों में झांकते हुए देखा।

रैना खिलखिलाते हुए बोली, "हाँ, याद आया। तभी आज जनाब बड़े रोमांटिक मूड में हैं। सदके जाऊं। आपको इतने बरसों बाद अपने पुराने अंदाज़ में देख रही हूं।"

"आपकी नज़दीकी का सुरूर है जानेमन। आप कहें तो हम रोज ही वैलेंटाइन्स डे मना लें," रैना को सामान्य देख बेइंतिहा खुशी से विधु का मन मयूर नाच उठा और वह बोले, "बस अब आप इस साड़ी को पहन कर आइए।"

"यह क्या बचपना है? आज अपनी एनिवर्सरी तो है नहीं। फिर आप मुझसे यह कवायद क्यों करवा रहे हैं।"

"मैडम, इसी कवायद के दम पर ही तो आप मुझे वापस मिली है। अब आप फिज़ूल में टाइम जाया मत करिए। जल्दी से यह साड़ी पहन कर आइए,” विधु ने तनिक शरारत से मुस्कुराते हुए पत्नी से कहा।

"ओ विधु, क्या मैं फिर से अल्ज़ाइमर्स के शिकंजे में गुम हो गई थी? फिर से सब कुछ भूल गई थी, लेकिन मुझे तो कुछ याद ही नहीं," एक नन्ही बच्ची की तरह से मचलते हुए उसने उनसे पूछा और जवाब में वह मुस्कुरा दिये।

"हां रैना, गुम तो हो गई थी, लेकिन मेरा प्यार तुम्हें वापस मेरे पास ले आया। चलो इससे पहले कि तुम फिर से सब कुछ भूल जाओ, जल्दी से यह साड़ी पहन कर आओ।"

कुछ ही देर बाद उसी साड़ी में दमकती रैना विधु की बाहों में बंधी मंद मुस्कुरा रही थी। खिड़की के बाहर पूरे शबाब पर चमकता पूर्णिमा का चांद उन दोनों को देख मुस्कुरा उठा था।