हरदयाल जी आज बेहद उद्विग्न थे। आज उनके बेटे अयान ने फिर से उनसे बेबात झगड़ा किया था। उन्हें इतनी जली-कटी सुनाई कि कानों में अभी तक रह-रहकर उसके विषबुझे शब्द गूंज रहे थे-‘ आपमें जरा अक्ल नहीं है व्यापार चलाने की। धंधा ऐसे चलता है? अच्छे-खासे डिपार्टमेंटल स्टोर को लाला की दुकान बना कर छोड़ दिया है। अब बस बहुत हुआ, आज से आप स्टोर में कदम तक नहीं रखेंगे। देख ली आपकी काबिलियत, इतने सालों में अपना व्यापार नहीं बढ़ा पाए।’
बेटे के हाथों इस अपमान से हरदयाल जी अत्यंत आहत महसूस कर रहे थे। वह सोच नहीं पा रहे थे, उनका अपना बेटा, उनका अपना खून, जिसे उन्होंने जी-जान से चाहा, लाड़-दुलार दिया, खयाल रखा, उसे हर संभव सुख-सुविधा संपन्न जीवन दिया, वही बड़ा होकर उसे यूं जलील क्यों कर रहा था? कि तभी उनकी खुली आंखों के सामने एक नारी आकृति उभरी थी, जिसने क्षण भर में उनकी पूर्व पत्नी सरला का रूप ले लिया था। जब भी वह किसी बात से दुखी होते, निराशा का अनुभव करते, उनके अंत:करण का चोर सरला को उनके सामने खड़ा कर देता। आज भी ठीक वही हुआ। ऐसा क्यों होता है? क्या वह वाकई में सरला के दोषी थे? एक-एक करके पुराने दिनों की स्मृतियां उनके मानस पटल पर गड्डमड्ड होने लगी थीं और उनमें से कुछ आंखों के समक्ष जीवंत हो उठी थीं।
सरला का उनके साथ विवाह हुए आज मुद्दत हुई , जब वह निरे बच्चे थे। पिता के घर वे दोनों साथ-साथ खेलते हुए बड़े होने लगे। उनकी मां न थी। बचपन में ही उनकी जन्मदायिनी एक गंभीर बीमारी में उन्हें छोडक़र चल बसी थी। पिता की कपड़ों की चलती हुई दुकान थी। उन्हें अपनी दुकान की वजह से दिन-दिन भर घर से बाहर रहना पड़ता। घर में मात्र 80 वर्ष की वृद्धा मां थी, जो घर की देखभाल भली-भांति नहीं कर पाती थी। बहू सरला के आने से बूढ़ी मां को बहुत सहारा हो जाएगा, यह सोच कर उसके पिता जोर-जबरदस्ती बेटे के विवाह के फौरन बाद सात साल की बहू सरला का गौना करवा करवा उसे विदा करवा अपने घर ले आए। सामान्य रंग रूप की सरला बेहद समझदार थी। जैसे-जैसे बड़ी होती जा रही थी, घर में वृद्धा दादी के मार्गनिर्देशन में घर के कामकाज बड़ी ही कुशलता से सीखती जा रही थी।
समय अपनी ही रफ्तार से बीतता गया। देखते ही देखते वह और सरला किशोरावस्था में कदम रख रहे थे। सोलह वर्ष की होते ही उनके पिता ने एक हवन और बिरादरी को एक भोज दे दोबारा गौने की रस्म संपन्न कर सरला और उनके वैवाहिक जीवन का सूत्रपात किया। पांच वर्ष के वैवाहिक जीवन में उनके दो लडक़े और एक लडक़ी हुई।
वह और सरला वैवाहिक रिश्ते में बंधे जरूर लेकिन उनके संबंध में वह माधुर्य नहीं था, जो कि एक सुखी-संतुष्ट शादीशुदा जीवन में होना चाहिए। सरला को पत्नी रूप में पाकर वह पूरी तरह से संतुष्ट नहीं थे। वह उन्हें पत्नी कम, मां ज्यादा लगती। फिर उन दिनों वह कॉलेज में अध्ययनरत थे। कॉलेज में अपने साथ पढऩे वाली फैशनेबल और अंग्रेजी बोलने वाली लड़कियों को देखकर वह सोचते, उनकी पत्नी वैसी क्यों ना हुई? अनपढ़, सीधी-सादी, हर वक्त घर-गृहस्थी की बातें करती, रसोई और मसालों की गंध से महकती-गमकती सरला उनमें अबूझ वितृष्णा जगाती। जैसे-जैसे वह युवा हो रहे थे, सरला के प्रति यह विरक्ति का भाव बढ़ता ही जा रहा था जो उनके वैवाहिक बंधन के लिए शुभ न था।
तभी वह अपने कॉलेज में पढऩे वाली एक सुंदर-स्मार्ट लडक़ी पुष्पा के संपर्क में आए। उन्हें पुष्पा बहुत अच्छी लगा करती। पुष्पा भी हरदयाल जी को बेहद पसंद करती। कॉलेज में दोनों हर वक्त साथ रहते। हरदयाल जी और पुष्पा की कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई। कॉलेज में पुष्पा के साथ तीन वर्ष बिता पुष्पा उनकी एक जरूरत बन गई थी। उससे जब तक सुबह-सुबह मिल नहीं लेते, उससे बातें नहीं कर लेते, उनका दिन पूरा ना होता। वह चाहते, वह पुष्पा के साथ हरदम रहें, उससे हरदम बातें करें लेकिन वह विवाहित थे। सरला उनके बच्चों की मां थी। उसे घर से और अपने जीवन से कैसे निकाल बाहर करें और पुष्पा को कैसे अपने जीवन में शामिल करें, उनकी समझ से बाहर था। उनके मन की सारी खीज सरला को जली-कटी सुना कर बाहर निकलती। जैसे-जैसे दिन गुजर रहे थे, किसी भी कीमत पर पुष्पा को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। वह उनकी जिद बन चुकी थी। सो कुंठित मन से वह दिन-रात सरला से कलह करते, उससे बेबात लड़ते, बहाने बहाने से उसे ताने सुनाते-
‘अनपढ़-गंवार, तूने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। न कोई शऊर, न सलीका, तेरे साथ एक घर में रहना मेरे लिए सजा से कम नहीं। न जाने मुझे तुझसे कब मुक्ति मिलेगी?
इस प्रकार घर में दिन-रात कलह और अशांति का माहौल रहता। तीनों बच्चे भी डरे-सहमे रहते।
सरला की समझ नहीं आता कि इन प्रतिकूल परिस्थितियों का मुकाबला वह कैसे करे? कैसे अपनी पटरी से उतरी जिंदगी को सही रास्ते पर लाए। हरदयाल जी के पिता अब वृद्ध हो चले थे। उनकी घर में बिल्कुल न चलती। घर में हरदयाल जी की तूती बोलती। अब वह अपनी मर्जी के मालिक थे। सो एक दिन मंदिर में पुष्पा से विवाह रचा वह उसे घर ले आए थे। सरला को उन्होंने सख्त हिदायत दे दी थी, ‘10 दिनों में अपने और बच्चों के रहने का इंतजाम कहीं और कर ले।’ पति का यह हुक्म सुन सरला अवश विवषता से रो पड़ी और उसने पति से पूछा, ‘मैं कहां जाऊं इन दुधमुंहे बच्चों को लेकर?
और हरदयाल जी ने जवाब दिया- ‘तुम कहां जाती हो, क्या करती हो, उससे मुझे कोई सरोकार नहीं। तुम्हारे और बच्चों के लिए इस घर में कोई जगह नहीं है। अब यहां बस पुष्पा और मैं रहेंगे। किसी तीसरे और के लिए इस घर में कोई गुंजाइश नहीं है।’
वृद्ध पिता मूकदर्शक बन उनकी इस मनमानी को देखते रहे। प्रतिकार करना उनके बस में नहीं था। सो मौन आंसू बहा निर्दोष बहू को देखते। और बहू के प्रति बेटे के अन्याय पर और अपने दुर्भाग्य पर लंबी-लंबी सांसें भरते और आंसू बहाते।
उन्हें अक्सर समझाते, ‘बेटा, ब्याहाता बीवी घर की लक्ष्मी होती है। घर की धूरि होती है। उसका अनादर भगवान के अनादर के समान होता है। बेटा, सरला को यूं तंग मत किया कर। उसे दुख देकर तू अपने काल को न्योत रहा है।’ लेकिन तब उन्हें पिता के इन शब्दों का मर्म समझ नहीं आया था। उन्हें पिता की ये बातें निरर्थक लगा करतीं। जवानी के जोश में वह सही और गलत में भेद करना भूल गए। सरला का आंसुओं से भरा चेहरा उनके कल्पना चक्षुओं के सामने बार-बार आ रहा था मानो उनसे कह रहा हो- ‘तुम अपना बोया ही काट रहे हो। याद करो, तुमने मुझे बेबात कितना रुलाया था। अब तुम्हारा अपना खून तुमसे उसका सूद सहित बदला ले रहा है तो दुखी क्यों होते हो?’ और हरदयाल जी अवश हताशा और छटपटाहट से हाथों में मुंह छिपाए रो पड़े। एक वक्त था, जब उनके पास सब कुछ था, सरल समर्पिता पत्नी, प्यारे-प्यारे बच्चे, रोजी-रोटी का अच्छा साधन, पैसा लेकिन उन्होंने स्वयं अपने हाथों अपना सर्वनाश किया था।
हरदयाल जी की स्थिति अपने ही घर में बिगड़ती गई। बेटा उन्हें और पुष्पा को बेमतलब परेशान करने का एक मौका नहीं छोड़ता। धीरे-धीरे उसने सारे ऑफिस की बागडोर अपने हाथों में ले ली। और कल तो हद ही हो गई। कल जब वह अपने ऑफिस के भीतर कदम रख ही रहे थे कि प्रवेश पर बेटे के कुछ दादानुमा दोस्तों ने हाथ बढ़ा कर उनका रास्ता रोकते हुए फरमान सुनाया-‘अंकलजी, बहुत काम कर लिया आपने। अब तनिक आराम करो। अपने घर जाओ। आंटी जी के साथ समय बिताओ। यहां का काम हम संभाल लेंगे।’
और विवश उन्हें अपने कदम वापिस घर की ओर मोडऩे पड़े। सारी रात वह सो नहीं पाए। भविष्य की चिंता ने उनका सुख-चैन छीन लिया। उन्हें रह-रहकर यह चिंता खाए जा रही थी कि अब उनका ऑफिस छिन जाने पर उनका गुजारा कैसे होगा? बेटा दिन-रात बहाने बहाने से उन पर तंज कसता। अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें घर से बाहर निकल जाने को कहता।
जीवन के इस मोड़ पर वह बेहद असहाय महसूस कर रहे थे जहां से उन्हें आगे बढऩे का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। अगले ही दिन उन्होंने बेटे से आमने सामने बात की थी-‘बेटा, सारा ऑफिस तो तुमने अपने कब्जे में ले लिया है, अब मैं क्या करूं?’
और जवाब में बेटे ने बेहद तल्ख अंदाज में उनसे कहा था- ‘आप कहां जाते हैं, क्या करते हैं, उससे मुझे कोई सरोकार नहीं। अलबत्ता यह तय है कि अब आपके लिए घर में कोई जगह नहीं है। अब यहां मेरी मां रहेंगी और मेरे भाई-बहन रहेंगे। और किसी के लिए इस घर में कोई गुंजाइश नहीं है।’
और अवाक् हरदयाल जी ने एहसास किया, ठीक 35 वर्ष पहले उनके सरला को बोले गए शब्द वापिस उनके पास लौटकर आ गए थे। उनके स्वयं के कर्म उन्हें ले डूबे। शायद यही कर्मों की गति थी।