“कल अलोका का जन्मदिन है, और इस बार वह जिद पकड़े हुई है, कि उसके फ्रेंड्स को बुलाना है।
इधर महीने का आखिरी चल रहा है। घर खर्चे के बस दो हज़ार बचे हैं। अब उसकी पार्टी कैसे करें। न हो तो आप ऑफ़िस से एडवांस ले लो जी।”
“अरे, एडवांस की बात तो छोड़ ही दो। पहले ही अमोला की शादी में ली हुई रकम अभी पूरी नहीं कटी। अब किस मुंह से और रुपये मांगू?”
“फिर क्या करें जी? अलोका तो अड़ी हुई है, इस बार बर्थडे पार्टी जरूर करनी है। मना किया तो बुरी तरह से बिफ़र जाएगी। कल ही खूब रो धो कर सोई है।”
“अरे समझा दो, पैसे नहीं हैं पास, तो क्या करें। कह दो, अगले साल जरूर मना देंगे उसका जन्मदिन।”
“वो नहीं मानने वाली। लोजी, मेरे पास ये डेढ़ हजार रुपए हैं। पिछली बार मम्मी देकर गईं थीं। सोचा था, अपना चश्मा बनवा लूंगी। बिना चश्मे के सब कुछ धुंधला दिखता है। चलो कोई बात नहीं। और थोड़े दिन बिना चश्मे के सही। पहले बच्चों की खुशी है। यह लो पार्टी के लिए नाश्ते का सामान ले आना,” अलोका की मां ने पति को रुपए थमाते हुए कहा।
प्रशांत घर की गली से निकला ही था, कि सड़क के उस पार शराब की दुकान देख कर ठिठक गया। दुकान पर बड़े-बड़े रंग बिरंगे बैनर लगे हुए थे, ‘बाय वन गेट वन।’
प्रशांत के कदम बरबस उस दुकान की ओर मुड़ गए।
मन में उठापटक मची हुई थी, ‘यह मौका फिर नहीं मिलेगा। उसकी मनपसंद बोतल आधी कीमत पर मिल रही थी। स्कीम फिर रहे ना रहे।’
उसने काउंटर पर जाकर रुपए बढ़ाए, “एक ऐब्सौल्यूट वोदका देना जरा।” कि तभी अगले ही क्षण मानस चक्षुओं के सामने बर्थडे मनाने के लिए मचलती लाड़ली का आंसुओं से मलिन चेहरा आ गया। मन की धरती धूज उठी। उसे क्या चाहिए, बिटिया की खुशियाँ या खुद की? ममता या स्वार्थ?
अगले ही क्षण उसने अपना रुपए थामे हाथ को खींचा, और “सॉरी” बुदबुदाता हुआ बगल की बेकरी में घुस गया।