स्वाभिमान

मोहल्ले की औरतें शानू की शादी के बन्ना-बन्नी गाने उसके घर जुटी हुई थीं।  तभी छाया और उसकी मां ने कमरे में प्रवेश किया। छाया को देख कमरे में फुसफुसाहटों का दौर शुरू हो गया..., “अरे, इतने दिन हो गए, इस बार यह मां के घर बैठी है।  कुछ तो गड़बड़ है।”

“हां, आजकल रोज फ़ाइल दबाए सुबह सुबह घर से निकल जाती है, और शाम पड़े घर लौटती है।”

“अच्छा, यह बात है? कहां जाती है?”

“अरे, नौकरी तो नहीं ढूंढ रही?”

“अरे छाया की मां, छाया को कब विदा कर रही हो? इस बार तो बहुत दिन हो गए उसे मायके में। तीन महीने तो हो ही गए होंगे उसे आए? है न,” स्वभाव से मुंहफट, खोजी स्वभाव की छन्नो चाची बोल उठीं।

औरतों की छींटाकशी सुन छाया की सहनशक्ति जवाब दे गई।  वह क्रोध से फट पड़ी, “मैं मनीष को हमेशा के लिए छोड़ आई हूं। निरा जाहिल है। आए दिन मां-पापा से पैसों की मांग करता है। मना करने पर मुझे प्रताड़ित करता है। मैं ऐसे इंसान के साथ गुज़ारा नहीं कर सकती। आखिर मेरा भी स्वाभिमान है। पढ़ी-लिखी हूं। अब यहीं नौकरी ढूंढ रही हूं।”

उसकी मां ने उसे गर्वित हृदय से गले लगा लिया।