धरा की हल्दी की रस्म चल रही थी, और उसके दादाजी उसकी मां सीता के लिए पूछ रहे थे, “अरे, कोई मुझे बताएगा, सीता कहां है?”
“अरे, घुटनों में मुंह छिपाए कहीं कोने में बैठी टसुए बहा रही होगी अभागन। कितनी बार कह दिया, शुभ कारज के बखत आंसू ना बहइयो। अपशगुन होवे है, लेकिन उसे क्या परवाह? बिना रोए तो उसका दिन ही पूरा नहीं होवे,” सीता की सास ने शिकायती लहज़े में पति से कहा।
“बहू, सीता बहू, कहां हो भई? बेटी को हल्दी चढ़ रही है, और तुम यहां छिपी बैठी हो। जाओ, जाकर उसे हल्दी चढ़ाओ।” ससुर जी ने तनिक चिल्लाकर बहू से कहा।
“नहीं, नहीं, मैं उसे हल्दी कैसे चढ़ा सकती हूं? अपशगुन हो जाएगा। समझा करो पापाजी, मैं ठहरी विधवा।”
“अरे विधवा होने से पहले तुम धरा की मां हो। जन्म देने वाली की पदवी भगवान के बाद होती है। तू तो बेटा हर सांस में उसकी मंगल कामना करती है तो उसका अनिष्ट कैसे कर सकती है? चल-चल, वहम मत कर और हल्दी चढ़ा उसे।”
धरा की माँ आंसू भरी आंखों से बेटी को आसीस देते हुए कांपते हाथों से पाटे पर बैठी अपनी लाड़ली को हल्दी चढ़ाने लगी।