हौसले की जीत

गंगा जयपुर मैराथन के ट्रैक पर हवा से बातें करते हुए सरपट दौड़ रही थी। आज मानो उसके पंख उग आए थे। वह सिर्फ भाग नहीं रही थी, बिजली की गति से मानो डैनों पर सवार उड़ रही थी। उसके पैंसठ वर्षीय वृद्ध शरीर का सारा दमखम जैसे सिमटकर उसके पैरों में आ गया था और वह अदम्य इच्छा शक्ति से अपने हर कदम के साथ अपने आपको जबरन आगे धकेलते हुए अपने लक्ष्य, रेस की फिनिशिंग लाइन की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रही थी। उसके नंगे पैर राह के कंकड़-पत्थरों की चुभन से लहूलुहान हो उठे थे। बूंद-बूंद लहू उसकी फटी एड़ियों से रिस रहा था, सड़क पर रक्त की एक लम्बी धार बनाते हुए। लेकिन अपनी शारीरिक पीड़ा से बेखबर उस क्षण उसे किसी भी तरह के दर्द या पीड़ा का एहसास नहीं हो रहा था। सिर्फ एक चेतना जीवंत थी उसके अन्तःकरण में, ‘आज मुझे किसी भी तरह इस दौड़ में जीतना है, इनाम के रुपयों से पूरण को यमराज के शिकंजे से छुड़ाकर लाना है। इस में जीतना ही मेरी आखिरी आस है। अगर आज मैं इसमें हार गई तो पूरण, अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठूंगी।’ मन ही मन विचारों के इस सैलाब में डूबते उतराते आंखों के एक कोने से उसने देखा, उसके आसपास कुछ लोग उसके आगे निकल रहे थे। उसका लक्ष्य, फिनिशिंग लाइन उससे कुछ ही दूरी पर था, और एक बार फिर से उसने अपनी शिथिल हो आई वृद्ध काया की सारी ऊर्जा अपनी कृशकाय टांगों में झोंक दी, और अविश्वसनीय चपलता से हवा को मात देते हुए वह आखिरकार अपने घौंकनी से धड़कते दिल के साथ फिनिशिंग लाइन को एक झटके में पार कर कटे वृक्ष की भांति भरभरा कर गिर गई थी।

उसकी इस अविश्वसनीय जीत पर पूरा वातावरण तालियों की जबर्दस्त गूंज से गुंजायमान हो उठा। वहाँ मौजूद हर व्यक्ति उसके अतुलनीय हौसले के जज़्बे को सलामी देते हुए उसके सम्मान में ताली बजा रहा था। उसे काटो तो खून नहीं था, वह फटी फटी निगाहों से ऊपर नीले आसमान की ओर ताक रही थी।

वह अभी तक यह आत्मसात करने में असफल थी कि उसने यह रेस जीतकर दस लाख की बड़ी रकम जीत ली है। फटी पुरानी पैबंद लगी घाघरा लूगड़ी पहने बिवाइयों से फटे नंगे पैरों वाली उस क्षीणकाय, नाजुक सी दिखने वाली वृद्धा ने वह कर दिखाया था जो आज से पहले शायद मैराथन के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। गंगा की दृढ़ संकल्प शक्ति आज न जाने कितनी प्रशिक्षित मैराथन धावकों के कड़े प्रशिक्षण को अंगूठा दिखाते हुए अपनी विजय पताका लहरा चुकी थी। यह जीत थी उसके ध्रुव निश्चय की जिसने उसके हौसले को जिता दिया था। उसने अपनी लगन और मजबूत इरादों से नामुमकिन को मुमकिन कर दिया था।

फिनिशिंग लाइन के पार सड़क पर धराशायी गंगा अपनी उखड़ती सांसों को सायास संभालने का आखिरी प्रयास करते हुए उठने की कोशिश कर रही थी, लेकिन जिंदगी में शायद पहली बार इतनी लंबी दूरी दौड़ कर पार करने में उसकी सारी ऊर्जा चुक गई थी, और वह चाहकर भी नहीं उठ पा रही थी। कि तभी कुछ लोग उसके पास आ गए और उन्होंने उसे सहारा देकर उठाया था।

यह जीत हासिल कर उसे ऐसा लग रहा था, मानो आज सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में आ गई थी। अपनी इस शानदार कामयाबी पर वह सातवें आसमान में पहुंच गई थी। उसकी खुशी का ठिकाना न था। ‘अब पूरण ठीक हो जाएगा। बस, अब कोई चिंता नहीं। पूरण सही सलामत उसके साथ बना रहे, बस इसके आगे उसे और कुछ नहीं चाहिए। डाग्दर बाबू ने तो कहा था, पूरण के इलाज में एक लाख रुपए का खर्च आएगा। लेकिन उसने तो एक झटके में दस लाख जीत लिए।’ वह अपनी आंखें मूंद बुदबुदाई, “हे संकटमोचन हनुमान बाबा, मेरे पूरण को चंगा कर दो। तुम्हारे जयपुर के खोल के हनुमानजी के मंदिर में सवामनी करूंगी और पूरे गांव को न्योतूंगी प्रसादी में। बस मेरे पूरण को पहले की तरह अपने पैरों पर खड़ा कर दो।”

पुरस्कार वितरण समारोह में आरामदेह गद्देदार कुर्सी पर सबसे आगे की पंक्ति में बैठी गंगा की इच्छा हो रही थी कि उड़कर पहुंच जाए पूरण के सामने और उससे कहे, “ देख, अब अपनी जिंदगी भर की सारी विपदा दलिद्दर दूर। तेरा इलाज करवा बची हुई सारी रकम बैंक में जमा करवा देंगे और चैन की बंशी बजावेंगे,” कि तभी स्टेज से उसका नाम पुकारा गया और कुछ लोग उसे स्टेज पर ले गए। चारों ओर तालियों की जबर्दस्त गड़गड़ाहट और रंग-बिरंगे जलते बुझते लट्टुओं के बीच दस लाख का चैक उसके हाथों में थमाया गया। चैक को अपने एक मैले कुचैले बटुवे में बड़े जतन से संभाल कर रख उसे उसने अपने घाघरे के भीतर खोंस लिया, और फिर वहां से निकलकर वह बस अड्डे की ओर रवाना हो गई। फिर कुछ ही देर में वह अपने गांव जाने वाली बस में बैठ गई। सुबह की दौड़ की थकान अब उसे शिद्दत से महसूस हो रही थी। उसे लग रहा था, जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं बची थी। पैर अलग बुरी तरह से दुख रहे थे। रह रहकर उनमें टीस उठ रही थी।

निढाल क्लांत मन, शरीर से गंगा ने बस की सीट पर बैठकर अपनी आंखें बंद कर ली, और कुछ ही देर में ही वह अधसोई अधजागी तन्द्रा की स्वप्निल दुनिया में विचरण करने लगी। ऊबड़ खाबड़, धूल भरी कच्ची सड़क पर हिचकोले खाती बस में गंगा कब विगत अतीत के खट्टे मीठे पलों को एक बार फिर से जीने लगी, उसे पता ही नहीं चला।

दस बरस की गुड्डा गुड़िया खेलने की उम्र में पूरण से गठजोड़ हुआ था उसका। ग्यारहवां बरस लगते लगते उसका गौना हो गया था। साथ-साथ खेलते, कूदते, लड़ते झगड़ते वे दोनों बडे़ हुए थे। कच्ची उमर में जो उनके रिश्ते पर नेहप्रीत का रंग चढ़ा, वह दिन बीतते बीतते पक्का होता गया। दोनों दो शरीर एक जान बन कर रह गए थे। दोनों का दिल धड़कता तो एक दूजे के लिए। पूरण उसे हर दम अपनी आंखों के सामने रखता। एक मिनिट भी वह उसकी आंखों से ओझल होती तो बौराया हुआ सा गंगा गंगा की टेर लगा देता। उसे बरदाश्त नहीं था कि वह पल भर को भी उसकी नजरों से दूर हो। उस का पीहर दूसरे गांव था। उसके मायके वाले उसे देखने को तरस जाते। दामाद की लाख मनुहार करते उसे कुछ दिन अपने यहां भेजने के लिए। लेकिन अपनी धुन के पक्के पूरण पर उनके कहने सुनने का कोई असर नहीं होता।

वक्त के साथ-साथ उस की गोद भरी। तीन तीन नन्हीं सोनचिरैया उसके आंगन में चहकने लगीं। वह और पूरण तीनों बेटियों के पालन पोषण में व्यस्त हो उठे। बेटियों को स्कूली शिक्षा दे, संस्कारों के धन से मालामाल कर घर के कामकाज में सुघड़ बना सुयोग्य पात्रों से उनका ब्याह रचाना उनकी जिंदगी का एकमात्र मकसद बन चुका था। वह स्वयं भी सातवीं कक्षा तक पढ़ी हुई थी। सो दोनों बेटियों को अच्छी तरह से पढाई करने को हरदम प्रोत्साहित करती।

उम्र के पायदान पर चढ़ते हुए बेटियां बड़ी हो आईं। सरकारी स्कूल में उनकी स्कूली पढाई का खर्च तो ज्यादा न था, लेकिन बड़ी होती बेटियों के कपड़े लत्ते, और अन्य खर्चों से उसकी और पूरण की जान हमेशा सांसत में रहती। गांव के जमींदार के खेतों पर काम कर दोनों मुश्किल से गुजारे भर लायक कमाई कर पाते। नियति ने दोनों को सातों सुख दिए थे, बस एक लक्ष्मी की कृपा के अलावा। लक्ष्मी मैया सदा से ही उनसे रूठी रही थीं। उन्हें पैसों की तंगी सदैव बनी रहती। ऊपर से तीनों के विवाह की चिंता दोनेां को खाए जाती। लेकिन उनकी तीनों बेटियां अथाह रूप लावण्य की संपदा से मालामाल थीं। हाथ लगाए मैला होता रंग रूप और देव प्रतिमा सी निर्दोष सम्मोहक गढ़न के साथ तीनों ने जन्म लिया था। शील और संस्कारों के दहेज के साथ उन दोनों ने किसी तरह पाई पाई जोड़ पास की मामूली सी जमा पूंजी से तीनों बेटियों के हाथ सत्पात्रों को सौंपे थे।

तीनों बेटियों की महत जिम्मेदारी से फ़ारिग होकर वह और पूरण बेहद संतुष्ट थे। रोज जमींदार के खेतों में हाड़तोड़ मेहनत मजदूरी करते और गुजारे लायक कमाई करते। आपसी नेहप्रीत की आंच उनकी साथ साथ प्यार से जीने की जीजीविषा को सुलगाए रखती, और जिन्दगी के बढ़ते पहियों के साथ उनके दिन भी सुकून से बीत रहे थे।

लेकिन विपत्तियों, विपदाओं और जीवन का चोलीदामन का साथ है। एक दिन पूरण और वह जब जमींदार के खेत में गेहूं की लहलहाती फसल की कटाई कर रहे थे कि अचानक पूरण गश खाकर गिर गया। बड़ी मुश्किल से गांव के लोगों ने उसे उठाकर घर तक पहुंचाया।

घर पर पूरण की हालत दिन पर दिन बिगड़ती गई। उसने उसकी कमजोरी दूर करने के सारे देसी इलाज कर डाले लेकिन दिन बीतने के साथ पूरण की बीमारी बढ़ती गई। पास का पैसा खत्म होने आया।

उसने पूरण को गांव के बड़े अस्पताल में दिखाया था। वहां खून की जांच में कुछ खराबी आ गई थी और गांव के डाक्टरों ने उसे जयपुर के बडे़ अस्पताल में दिखाने को कहा। लाचार उसने जमींदार से बहुत ऊंची ब्याज पर जल्दी से जल्दी देनदारी चुकाने की शर्त पर दस हजार रुपए कर्ज में लिए और सबसे बडे़ बेटी दामाद के साथ बस से जयपुर पहुंच गई। लेकिन शहर पहुंचकर भी विपत्ति के बादल गहराते गए, छंटे नहीं थे। बडे़ अस्पताल में एक बार फिर पूरण की पूरी जांच हुई। जांच हुए पूरा दिन बीत चला था और रिपोर्ट आने ही वाली थी।

वह जांच कक्ष के दरवाजे पर टकटकी लगाए पूरण की खून की जांच की रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रही थी सावन भादो बरसाती आंखों से और मन ही मन अपने इष्ट देवता का सिमरन करते हुए वह बुदबुदा उठी “हे हनुमानजी, पूरण की बीमारी मुझे लग जाए। उसे जल्दी से ठीक कर दो परमात्मा।” कि तभी कुछ डाक्टर जांच कक्ष से बाहर आए थे और उन्होंने उससे कहा, “देखो, जांच में तुम्हारे आदमी के खून में गंभीर खराबी निकली है जिसके लिए बहुत सारी दवाइयां चलेंगी और बहुत सारी जांच करवानी पडे़ंगी।”

जयपुर आने, ठहरने और जांच में उसके पूरे नौ हजार रुपए खर्च हो गए थे। मात्र एक हजार रुपए बचे थे उसके पास। डूबते ह्दय से उसने एक डाक्टर से पूछा, “डॅाक्टर बाबू, कितना खर्च आएगा इस जांच में और दवाइयों में?”

“लगभग एक लाख।”

ये शब्द सुनकर वह मानो जीते जी मर गई थी। घोर विवशता और लाचारी से उसके आंसू फिर से धार धार बहने लगे थे। उसे लगा था मानो उसकी दुनिया उजड़ गई थी। पूरण को हमेशा के लिए खो देने की कल्पना मात्र से उसके हाथ पैर ठंडे हो आए। कहां से लाए वह लाख रुपयों की इतनी बड़ी रकम? क्या करे? किसके सामने हाथ फैलाए? “देखूं, जमींदारजी अगर यह रकम दे दें तो पूरण की जान बच जावेगी, मैं उनके पैरों पडूंगी, विनती करूंगी, एक बार पूरण ठीक हो जाए तो मेहनत मजदूरी कर दोनों चुका देंगे।”

अस्पताल से निकलते ही उसे और पूरण को भूख लग आई थी। सो अस्पताल के बाहर से उसने दो कचौड़ियां खरीदीं थीं। पहले पूरण को एक कचौड़ी दे गंगा अपनी कचौड़ी खाने ही वाली थी कि उसकी नजरें उस अखबार के टुकडे़ पर पड़ी थी जिसमें उसकी कचौड़ी लिपटी हुई थी। उसमें लिखा हुआ था, जयपुर मैराथन जीतने वाले को दस लाख रुपया दिया जाएगा। वह मैराथन अगले ही दिन जयपुर में होने वाला था।

यह खबर देख डूबते को मानो तिनके का सहारा मिला था। अचानक उसके जेहन में ख्याल कौंधा था, ‘क्यों न मैं अपनी किस्मत इस मैराथन में आजमाऊं, दौड़ना ही तो है, पूरण की जान बचाने के लिए मैं दौडूंगी। अपनी जान लगा दूंगी इस दौड़ में और पूरण को हर हाल में मौत के मुंह से छुड़ाकर ले आऊंगी। बस अब मुझे कैसे भी करके यह दौड़ दौड़नी है और जीतना है।’ इस सोच ने उसके उद्विग्न मन को कुछ सुकून पहुंचाया।

मैराथन अगले ही दिन सुबह 10 बजे शुरू होना था। पूरण को दामाद के साथ गांव भेज कर वह रात को मैराथन स्थल के पास वाली धर्मशाला में बेटी के साथ रुकी। वह सुबह सात बजे से ही मैराथन स्थल पहुंच गई थी।

वहां उसे हर कोई मैराथन दौड़ने का इच्छुक देख अचंभित हो गया। उसने एक आयोजक पदाधिकारी से कहा, “बाबूजी, मैं इस दौड़ में हिस्सा लेना चाहती हूं, आपकी बड़ी किरपा होवेगी जो आप लोग मुझे दौड़ने दोगे।”

इस पर पदाधिकारियों ने उससे कहा, “इस मैराथन में वही लोग दौड़ सकते हैं, जो दौड़ने के कपड़े और जूते पहने हों। आपको इस लूगड़ी और बिना दौड़ने के जूतों में बड़ी मुश्किल होगी। आप भी और सभी की तरह दौड़ने के कपडे़ और जूते पहन कर आ जाइये और फिर दौड़िये।”

“अरे बाबूजी, इतनी बेरहमी मत करो। मैं कंगाल कहाँ से लाऊँगी यह सब? मुझ गरीब को दौड़ने दो, मैं जीतकर दिखाऊंगी आप सबको। मुझ लाचार को मना करके आपको क्या मिल जाएगा? लेकिन अगर मैं जीत गई तो मेरे आदमी की जान बच जावेगी। आप देखना, मैं कितना तेज दौडूंगी। बचपन में मैं दौड़ में अच्छे अच्छे लंबे तड़ंगे लड़कों को धूल चटा देती थी। मेरा आदमी मौत के मुंह में है। उसके इलाज के लिए मुझे एक लाख रुपए चाहिए हर हाल में। बस मुझे एक मौका दे दो बाबूजी दौड़ने का। आपके बीवी बच्चे सलामत रहेंगे बाबूजी।”चेहरे पर विकट बेचारगी के भाव के साथ वह आयोजकों के समक्ष मैराथन में अपनी भागीदारी की अनुमति के लिए गिड़गिड़ाई। हर कोई अचंभित था अपने पति को बचाने का उसका जज्बा देखकर। उसके इस जुनून को देखकर।

हार कर आखिरकार आयोजकों ने उसे मैराथन दौड़ने की अनुमति दे दी। स्टार्टिंग लाइन पर अपने घाघरे को घुटनों तक ऊपर कर और अपनी लूगड़ी के आंचल को सामने खोंस कर वह मैराथन जीतने की आस दिल में संजोए नंगे पैर खड़ी थी, स्पोर्ट्स शूज और ट्रैक सूट पहने प्रतिभागियों के विशाल हुजूम के मध्य। और पूरण के लिए उसके समर्पण भाव ने उसे आखिरकार जिता दिया था।

कि तभी उसकी तंद्रा भंग हुई थी। उसने अपने घाघरे में खोंसी हुई थैली में रखे चैक की एक बार फिर से टोह ली और उसे सही सलामत पा चैन की सांस ली थी।

एक बार फिर से पूरण के साथ जीवन के संध्याकाल में अपने नानी पोतों के साथ हँसते खेलते जिंदगी बिताने का सतरंगा इन्द्रधनुषी सपना उसकी आंखों में झिलमिला उठा और मुदित मन वह मुस्कुरा दी।