पढ़ी-लिखी बेटी

अहम... अहम...खांसते-खांसते अखिलजी अपने गांव के घर के आंगन में घुसे, कि तभी उनकी नई-नवेली बहू नैना ने उघड़े मुंह उनसे कहा, “बाबूजी, हाथ-मुंह धो लीजिए। वहां बेसिन पर गर्म पानी रखा है।”

उसे यूं बेपर्दा देख पुराने खयालातों के अखिलजी अपना आपा खो बैठे। उनके अनुसार बहुओं को ससुराल में घूंघट की मर्यादा में रहना चाहिए।

वह पत्नी से कहते हुए दहाड़े, “अरे, तुमने इस घर की रीत बहू को नहीं सिखाई। कल को बिरादरी-कुटुंब वाले हमारा मजाक नहीं उड़ाएंगे, इसे यूं बिना घूंघट के देखकर। अरे थू-थू करेंगे सब हम पर।”

इस पर वह तमक कर चिनचिनाते हुए बोलीं, “हजार बार कह चुकी हूं इससे, बहू, घूंघट रखा कर, लेकिन यह सुने तब तो।”

कुछ ही देर में अचानक रत्नाजी को दिल का दौरा पड़ा। घर में कोई मर्द न था।

नई बहू ने आंचल कमर में खोंस स्कूटर उठाया, और अपनी ननद को लेकर अगली गली से आनन फानन में डॉक्टर को अपने घर ले आई।

रत्ना जी की जान बच गई।

नई बहू ने बहुत ही समझदारी से घर और अस्पताल, दोनों जगहों का मोर्चा संभाल लिया। खड़े पैर सास की तीमारदारी में बनी रहती। उस रात भी उन्हीके पास थी।

बैठे-बैठे उसे थकान के कारण नींद के झोंके आ रहे थे कि वहां अखिलजी आ गए।

बहू सचेत हो उनके सामने भी यूं ही उघड़े मुंह बैठी रही।

अन्तर्मन में रूढ़िवादी सोच और तर्कसम्मत ख्यालों के मध्य प्रचंड रस्साकशी शुरू हो गयी। सोच नहीं पा रहे थे, किसका पक्ष मजबूत था, नई बहू की बेशर्मी का या फिर कर्तव्यपरायणता का?

तभी पत्नी क्षीण स्वरों में कराही, “पानी.”

बहू ने तत्क्षण उठ कर उन्हें पानी पिलाया।

उन्हें उनका जवाब मिल चुका था।

“बेटा, तुझे घूंघट करने की कोई जरूरत नहीं। तू मेरी बहू नहीं, बेटी है बेटी... मेरी पढ़ी-लिखी सुलक्षिणी बेटी।”