“अजी होली जलने का मुहूर्त हो आया। अब इस वक़्त कहां जा रहे हो। जरा नहीं सोचते कि अब निकिता की शादी के बाद मैं घर में अकेली रह गई हूं, तो यह पीना पिलाना, यारी दोस्ती छोड़ मेरे साथ हंसी-खुशी त्यौहार मना लें।”
“बस, बस नंदा! बीवी हो, थानेदारनी मत बनो। होली पर नशा नहीं किया, तो क्या किया?”
“जी सिर्फ होली पर पीते तो बात समझ में आती, आपकी तो हर शाम शराब के नाम होती है। फिर दारू चढ़ने के बाद की महाभारत तो मुझे झेलनी पड़ती है न।”
तभी उनकी नवविवाहिता बेटी सिसकती सुबकती घर में घुसी, और मां के गले लग गई।
“क्या हुआ बेटा? कुंवरजी कहाँ हैं? वह ठीक तो हैं? उन्हें कुछ हुआ तो नहीं,” नंदा ने धुक धुक करते जी से एक ही सांस में टूटती बिखरती बिटिया पर प्रश्नों की बौछार कर दी।
“क्यों रो रही है बेटा? कुछ तो बता। मेरा जी बैठा जा रहा है।” पिता ने पूछा।
“पापा, गौरव ने घर पर दोस्तों की पीने पिलाने की बैठक जमा रखी है। मैं सुबह से रसोई में लगी पड़ी थी। मिनट मिनट पर फरमाइश आ जाती, अब यह बना कर लाओ। अब वह बना कर लाओ। यह तो उसका रोज़ का राग है। पहले पीना और फिर अंट शंट बकना और मुझसे लड़ना झगड़ना। समझा समझा कर हार गई, लेकिन कोई फायदा नहीं।”
मैंने कहा कि “त्यौहार पर नशा मत करो।” तो झट जवाब मिल गया, “होली पर नशा नहीं किया तो क्या किया?”
पिता को यू लगा माओ उसके कानों में विस्फ़ोट हो उठा था।