मेहर

उस दिन कुलवंत ड्राइवर मुदित मन, बेहद सधे हाथों से अनगिनत पहाड़ों और खाइयों भरे चट्टानी घुमावदार इलाके में बस चला कर ले जा रहा था, कि तभी अचानक जोर की आवाज़ हुई। उसकी बस एक जबरदस्त धचके के साथ सड़क के एक और घिसटते हुए एक बहुत गहरी खाई के मुहाने तक पहुंच उस में गिरने की कगार पर ही थी, कि पलक झपकते ही उस ने पूरा दम लगाते हुए ब्रेक दबा दिया, और बस चरमराते हुए रुक गई।

मन में बवंडर उठ खड़ा हुआ।

 'क्या करे वह? अपनी जान बचाने को खुद कूद जाये? अगर उसने ब्रेक से पैर हटा दिया, तो अगले ही क्षण वे सब उस मौत के कूंए में होंगे। नहीं! नहीं! उसपर इतनी ज़िंदगियों का दारोमदार है। फर्ज़ पहले, अपनी सलामती बाद में।'

अगले ही क्षण वह जोर से चीखा, "मैंने ब्रेक लगाया हुआ है। सब लोग धीमे-धीमे एक-एक कर उतर जाओ। डरो मत, जब तक मेरा पांव ब्रेक पर है, गाड़ी हिलेगी नहीं।"

धौंकनी से धड़कते दिल के साथ वह उन्हें बस से उतरता देखता रहा।

आखिरी सवारी को कुशल मंगल बाहर जाता देख उसने चैन की एक लंबी सांस ली।

तभी उसकी बस का कंडक्टर चिल्लाया, "ओ कुलवंते! घबराना मत। हम बड़े-बड़े पत्थर ला रहे हैं, टायर के नीचे लगाने वास्ते। फिर तू भी उतर जइयो।"

"ठीक है पापे, ले आओ। मेरी सवारियों की जान बच गई। अब जियूं या मरूं, कोई फिक्र नहीं।"

"ओए खोते! मरें तेरे दुश्मन। देख हमने दो पत्थर लगा भी दिए। पांच मिनट और सबर कर पुत्तर। रब के करम से तू भी भला चंगा निकल जाएगा।"

फिर कुछ ही देर बाद वह चिल्लाया, "कुलवंत, चल ब्रेक छोड़ दे। हमने सभी टायरों के नीचे बड़े बड़े पत्थर लगा दिए हैं। अब बस रत्ती भर भी नहीं खिसकनी।"

जुबां पर वाहे गुरु के सिमरन के साथ वह हौले से नीचे उतर हुंकारे लगाने लगा। “वाहे गुरु की कृपा! वाहे गुरु की मेहर!”