विश्वासघात

आकाश के सुरुचिपूर्ण ढंग से बने हुए मकान सुकून में उनके पहले शिशु के नामकरण संस्कार के उपलक्ष में आयोजित भोज में भारी संख्या में आमंत्रित मेहमान आ रहे थे। अपने मित्रों, रिश्तेदारों की भीड़ से घिरा हुआ आकाश अपने नवजात शिशु को सीने से चिपकाए असीम ममता भरी आंखों से उसे निहार रहा था। आकाश को अपने कलेजे के टुकड़े पर यू स्नेह बरसाते देख डॉक्टर भावेश को न जाने क्या हुआ, अदम्य आक्रोश मिश्रित आवेश से उनकी कनपटी की मांस पेशियां तन गईं, और अटकते से स्वरों में उन्होंने आकाश से कहा "माफ करना दोस्त, मैं अभी थोड़ी देर में आया। एक मरीज को मैंने वक्त दे रखा है, उसे देख कर।"

घर पहुंच कर उन्होंने फ्रिज की बोतल का ठंडा पानी गटागट अपने सूखे हलक में उतार लिया और अपनी आराम कुर्सी पर आंखें मूंद पड़ गए, लेकिन भरपूर शीतल जल की ठंडक भी उनके तन मन के दाह को नहीं मिटा सकी।

"यह मैंने क्या कर डाला?"- उनका संपूर्ण अस्तित्व मानो इस प्रश्न के अंतहीन भंवर में हिचकोले खाने लगा। एकमात्र खुशी की चाहत ने उन्हें यह किस नरक में धकेल दिया? एक बच्चे के रूप में अपनी जीती जागती प्रतिच्छाया देखने की आदिम आकांक्षा पूरी करने की कोशिश में वह यह कैसे अंतहीन दुखों की दलदल में धंसते जा रहे हैं?

बावन वर्षीय डॉक्टर भावेश समाज में अति प्रतिष्ठित, अति प्रसिद्ध, सफल स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में स्थापित थे। इस आयु तक उन्होंने अपने आप को चिकित्सा शास्त्र के प्रति पूर्णतया समर्पित कर रखा था। एक अति सफल डॉक्टर के रूप में नाम कमाने की लालसा में 35 वर्ष की अल्पायु में पत्नी के रक्त कैंसर द्वारा मृत्यु हो जाने के बाद उन्होंने दूसरे विवाह का नाम तक न लिया। फिर बांझपन दूर करने जैसे गंभीर विषय में शोध कार्य और बच्चा चाहने वाले दंपतियों की अंतहीन भीड़ से उन्हें वक्त ही कब मिलता, कि वह एक बार फिर से अपनी गृहस्थी बसाने की सोच पाते, लेकिन एक अति व्यस्त जीवन और अपूर्व, यश, मान प्रतिष्ठा के अधिकारी होने के बावजूद एक परिवार के बिना उन्हें अपना संपूर्ण अस्तित्व आधा अधूरा लगता।

कि तभी उन्हीं दिनों उनके पड़ोस में उनके बचपन के घनिष्ठ दोस्त आकाश ने अपनी कोठी ‘सुकून’ बनवाली। घर पास होने की वजह से डॉक्टर भावेश गाहे-बगाहे जब भी मन होता, उनके घर चले जाया करते।

आकाश की पत्नी श्रद्धा भी उनसे मित्रवत स्नेह भाव रखती, लेकिन पिछले कुछ दिनों से डॉक्टर भावेश कुछ परेशान थे। विवाह के दस वर्ष गुजर जाने के बावजूद आकाश और श्रद्धा के आंगन में किसी बच्चे की किलकारी नहीं गूंजी थी। डॉक्टर भावेश ने उन दोनों पति-पत्नी के चिकित्सकीय परीक्षण करवा लिए, जिन से पता चला कि आकाश में पिता बनने की क्षमता नहीं थी। दोनों ही इस खबर को सुनकर टूट जाएंगे, यह सोचकर डॉक्टर भावेश ने यह बात उन दोनों को नहीं बताई, और उन्हें गोलमोल सा जवाब दे दिया। इस गंभीर समस्या का कोई तोड़ उनके पास नहीं था, कि तभी उनके जेहन में एक विचार आया, क्यों ना श्रद्धा की कोख में किसी अन्य पुरुष का रक्तांश स्थापित कर उसे यह बिना बताए गर्भवती कर दिया जाए? यह सोच कर वह कुछ राहत महसूस करने लगे। यह कदम मित्र दंपति के जीवन में बेपनाह खुशियां ले आएगा, यह सोचकर डॉक्टर भावेश ने मन ही मन यह निर्णय लिया कि वह श्रद्धा की कोख में उसे बिना बताए किसी अन्य पुरुष का रक्तांश स्थापित कर उसका जीवन खुशियों से भर देंगे। यदि श्रद्धा को वह किसी गैर पुरुष के रक्तांश से शुक्राणु प्रतिरोपण की बात बता देते तो वह उसके लिए हरगिज़ तैयार नहीं होती क्योंकि एक बार बातों ही बातों में श्रद्धा ने उसे बताया था, कि वह शुक्राणु प्रतिरोपण के बिलकुल खिलाफ है। किसी गैर पुरुष के रक्तबीज से गर्भवती होने के स्थान पर वह ताउम्र बेऔलाद रहना पसंद करेगी।

बस तभी से आकाश जैसी कद काठी के नैन नक्श वाले पुरुष की खोज में वह कुछ दिनों तक काफी परेशान रहे। कि एक दिन अनायास आईने के सामने खड़े हुए उनकी नजर अपनी और आकाश के अक्सों पर गई और उनका ध्यान अपने और आकाश में साम्य की ओर खिंचा। बस उसी क्षण उनके दिमाग में यह अनोखा विचार कौंधा, क्यों ना वह अपना रक्तबीज श्रद्धा की कोख में स्थापित कर दें? हांलाकि उनके जैसा सिद्ध चिकित्सक इस बात को अच्छी तरह से जानता था कि श्रद्धा आकाश को बिना बताए उसकी कोख में अपने शुक्राणु प्रतिरोपण करना चिकित्सा शास्त्र के नैतिक मूल्यों के बिल्कुल विरुद्ध होगा, किंतु काफी मानसिक कशमकश के बाद एक बच्चे के रूप में अपना जीता जागता प्रतिरूप देखने की लालसा में, और मित्र दंपति को संतान सुख देने की इच्छा से डॉक्टर भावेश एक चिकित्सक के रूप में अपने नैतिक दायित्व को तिलांजलि दे बैठे, और आखिरकार किसी चिकित्सकीय परीक्षण के बहाने श्रद्धा आकाश को अस्पताल बुला उन्होंने श्रद्धा की कोख में अपना रक्तांश स्थापित कर दिया।

डॉक्टर भावेश युवावस्था से ही एक अत्यंत संयमी, चरित्रवान पुरुष रहे थे। श्रद्धा को अपने रक्तबीज की धात्री बनाने से पहले वे सदैव उसे मित्र पत्नी और छोटी बहन का सहज स्नेहिल मान देते आए थे, लेकिन जिस क्षण कांपते हाथों तथा धड़कते ह्रदय से उन्होंने संज्ञाशून्य मित्र पत्नी को अपने रक्तबीज की धात्री बनाया, उसी क्षण से एक अनाम रिश्ते की डोर से वह खुद को उससे बांध बैठे।

प्रौढ़ावस्था के प्रथम पड़ाव तक दृढ़ संयम की लगाम से साधा उनका संयमी मन श्रद्धा के प्रति अपनी मोहजनित आसक्ति को धिक्कारने लगता और वह अथाह ग्लानि और अपराध भावना से छटपटा उठते। पहले जहां अक्सर शाम की चाय वह आकाश के साथ किया करते, तथा कई बार वह श्रद्धा से अत्यंत सहज भाव से कभी गरमा गरम पकोड़े तो कभी सैंडविच की फरमाइश कर दिया करते थे। वहीं अब वह उसी श्रद्धा से आंखें मिला बात कर पाने तक में अपने आप को असमर्थ पाते। न जाने कितनी रातों को सपने में उनके कुंठित, दमित पौरुष ने मित्र पत्नी के महज़ नारी स्वरूप से न जाने कैसी-कैसी मनमानियां करी थी। सुबह के उजाले में जिनकी स्मृति मात्र उनके प्राण मन को अपूर्व आह्लाद से तरंगित तो कर दिया करती, लेकिन दूसरे ही क्षण नैतिकता का भान उन्हें अनन्य अपराध भावना की गहरी खाई में धकेल दिया करता।

इधर जबसे आकाश श्रद्धा के घर उनके पुत्र का जन्म हुआ है, उनका हर क्षण अपने बेटे को अपने सीने से चिपकाने की आकांक्षा में बीतता है। जहां दिन के बारह घंटे देश के सुदूर प्रांतों से आए हुए निसंतान दंपतियों की अंतहीन भीड़ के लिए कम पड़ते थे, वहीं अब पुत्र की याद उनकी दत्तचित्त एकाग्रता में बाधक बनने लगी थी। अपने पुत्र को अपनी आंखों के सामने हर वक्त न रख पाने की पीड़ा उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। शनै: शनै: उनका स्वास्थ्य भी उनकी मानसिक स्थिति से प्रभावित होने लगा। पिछले एक वर्ष का मानसिक उद्वेग शायद उन्हें तन से भी अस्वस्थ बना गया और वह टाइफाइड ज्वर से पीड़ित हो पलंग पकड़ बैठे। बीमारी के उन दिनों में सुबह शाम नियम से श्रद्धा आकाश उनका हाल-चाल पूछ जाया करते। श्रद्धा खुद उनका पथ्य बना जाया करती। एक मित्र डॉक्टर की दवाइयों का सेवन भी वह कर रहे थे, लेकिन करीब एक पखवाड़े से बेटे को नहीं देख पाने की छटपटाहट के साथ-साथ उनकी अपराध भावना शायद उनकी जिजीविषा को दुर्बल कर बैठी थी। कल सारे दिन वह करीब 105 डिग्री बुखार में प्राय: अचेत रहे। सन्निपात के दौर में न जाने क्या-क्या प्रलाप करते रहे थे, उनके नौकर ने ही उन्हें बताया था। ज़्वर उतरने के बाद दो दिन नौकर को भेजकर आकाश श्रद्धा को बुलवा भेजने के बावजूद मित्र दंपत्ति उनके यहां नहीं आए और उन्होंने नौकर द्वारा कहलवा भेजा कि बच्चे की तबीयत खराब होने की वजह से वह नहीं आ पाएंगे।

कि तभी अगली सुबह नौकर द्वारा दी गई आकाश की छोटी सी चिट्ठी उनके ऊपर गाज गिरा गई।

आकाश ने लिख भेजा था, “सपने में भी विश्वास नहीं कर सकता कि आप जैसा संत पुरुष कभी हमारे सुखचैन का गला घौंट देगा। कल तेज बुखार की बेहोशी में खुद आपके मुंह से सुना कि आशीष की रगों में आपका खून है। श्रद्धा तो मानो पागल सी हो गई है। हम किसी दूसरे शहर जा रहे हैं। आपसे एक विनती है, कभी भी हमसे या आशीष से मिलने की कोशिश मत कीजिएगा, भूलकर भी, बहुत कृपा होगी।"

कल से चौबीस घंटे होने आए हैं। डॉक्टर भावेश कागज की उस चिट को थामे मानो प्रस्तर प्रतिमा मांनिंद अपने कमरे में बैठे हुए हैं। पिछले दो दिनों से उनके मुंह में अन्न का एक दाना तक नहीं गया है।

शायद धूप छांव, दिन-रात मानिंद इंसानी जिंदगी की लम्हा दर लम्हा बदलती स्थितियां और परिस्थितियां मनुष्य को हर हाल में जिंदा रहने का सबक देती हैं। डॉक्टर भावेश भी धीरे-धीरे एकमात्र पुत्र के बिछोह के सदमे से उबर गए थे। इस दुर्वह आघात को भूलने के लिए उन्होंने अपने से करीब दस वर्ष छोटी पढ़ी-लिखी विधवा से विवाह कर लिया। डॉक्टर भावेश के नीरस जीवन में बरसों बाद कुछ नवीनता आई, लेकिन असंख्य संतानहीन दंपतियों के जीवन में खुशी का दीप जलाने वाले डॉक्टर भावेश का आंगन किसी बच्चे की किलकारी से नहीं चहक पाया, क्योंकि उनकी दूसरी पत्नी की कोख भ्रूण को नौ माह तक सुरक्षित रह पाने में असमर्थ थी, जिसका कोई इलाज संभव नहीं था। डॉक्टर भावेश का दूसरे विवाह द्वारा अपनी संतान पैदा कर पाने का सपना सपना ही रह गया।

इस बात से डॉक्टर भावेश एक बार फिर से निराशा के गहरे खड्डे में जा गिरे। दुख के इस नए झटके ने बिछड़े पुत्र से अलगाव की पीड़ा को नए सिरे से उभार दिया और एक बार फिर से डॉक्टर भावेश को अपना जीवन बेहद उत्साहहीन और निराशा भरा लगने लगा। बिछड़े पुत्र का मासूम सा नन्हा, गोल मटोल चेहरा जब जब उनकी आंखों के सामने आता, असीम पीड़ा से वह छटपटा उठते।

इधर जब इकलौती संतान से अलग हो डॉक्टर भावेश एक अत्यंत दुखी जीवन बिता रहे थे वहीं वर्षों बाद एक पुत्र को गोद में पाकर भी श्रद्धा आकाश स्वयं को इतना सुखी महसूस नहीं कर पा रहे थे जितना कि उन्हें करना चाहिए था। आकाश को रंज था, घनिष्ठ मित्र के विश्वासघाती आचरण पर।

जब जब वह बेटे को गोद में लेते, डॉक्टर भावेश की मनहूस छाया मानो शिशु के संपूर्ण चेहरे को ढक लेती, और पत्नी पर झुके हुए, उसमें अपने रक्तबीज का प्रतिरोपण करते हुए डॉक्टर भावेश की आकृति उनके मानस चक्षुओं के आगे निरंतर रहा करती। लाख चाहने पर भी यह दृश्य उनकी आंखों के सामने से हटाए नहीं हटता। कमोबेश श्रद्धा का भी यही हाल था। जब जब वह बेटे को गोद में लिया करती, उसे लगा करता, उसका संपूर्ण अस्तित्व मानो डॉक्टर भावेश के घिनौने लिजलिजेपन से लिथड़ गया हो। डॉक्टर भावेश के दोष की सारी अपराध भावना और ग्लानि मानो सारी की सारी उसके हिस्से में आ गई थी, जिस के बोझ तले श्रद्धा आकाश का दांपत्य जीवन मानो लड़खड़ा उठा।

यह एक चिरंतन सत्य है कि वक्त के साथ बड़ी से बड़ी इंसानी उलझनें खुद ब खुद सुलझ जाया करती हैं। धीरे-धीरे समय के साथ श्रद्धा आकाश बहुत कुछ सामान्य हो चले थे और नन्हा आशीष डॉक्टर भावेश के गैर जिम्मेदाराना आचरण के बदनुमा धब्बे से मुक्त होकर श्रद्धा आकाश के मन में अपनी जगह बना चला था।

धीरे-धीरे 18 वर्ष बीत चले। आशीष ने पिता की ही प्रखर कुशाग्र बुद्धि पाई थी। आकाश बेटे को अपनी भांति एक सफल आर्किटेक्ट बनाना चाहते थे लेकिन मेडिकल साइंस के प्रति बेटे का गहन रुझान देखकर न चाहते हुए भी माता-पिता को उसे डॉक्टर बनने की अनुमति देनी पड़ी और वक्त आने पर अपने ही शहर के मेडिकल कॉलेज में आशीष को प्रवेश मिल गया।

कि तभी एक अनहोनी घट गई। एक दिन देर रात बेटे से हॉस्टेल में मिलकर लौटते समय श्रद्धा आकाश की गाड़ी एक ट्रक से टकराकर चूर चूर हो गई, और बेहद गंभीर हालत में पति पत्नी को कोई भला इंसान गाड़ी से निकाल अस्पताल में दाखिल कर गया था। उनके फ़ोन में आशीष का नाम और हॉस्टल का नाम देख उसे भी सूचित कर दिया। गनीमत यही हुई कि माता-पिता की अंतिम सांसें बेटे के सामने ही निकलीं। मरते मरते भी माता-पिता दोनों को यही संतोष रहा कि वह बेटे को अनाथ निराश्रय नहीं छोड़े जा रहे हैं। पिता ने डॉक्टर भावेश का पूरा पता आशीष को लिखवा दिया, यह कहते हुए कि डॉ साहब को वह पिता समान माने और भविष्य में उनके पास रहे।

टूटती सांसों के बीच आकाश ने आशीष से कहा, "बेटे फौरन डॉक्टर भावेश को यहां बुला लो। आज से वही तुम्हारे पिता है। जीवन में एक अच्छे डॉक्टर बनना, मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है।"

यह कहते कहते एक हिचकी के साथ ही उनका जीवनदीप बुझ गया और करीबन आधे घंटे बाद श्रद्धा भी नीम बेहोशी की हालत में बेटे से एक शब्द भी कहे बिना चल बसी।

इस विकट झटके से किशोर आशीष बिल्कुल टूट गया था। रिश्तेदारों, मित्रों, बांधवों ने ही उसे संभाला था। डॉक्टर भावेश भी सूचना मिलते ही फौरन आशीष के पास पहुंच गए ।

काल प्रवाह बड़े से बड़े दुख दुर्भाग्य के निशानों को हल्का कर देता है। डॉक्टर भावेश की स्नेहिल छत्रछाया में किशोर आशीष भी माता-पिता की असमय मौत के सदमे से उबर मृत पिता को दिए गए वचन को पूरा करने में जी-जान से जुट गया। वक़्त के साथ जिंदगी से आशीष को अब कोई खास शिकायत नहीं रही थी। डॉक्टर भावेश और उनकी पत्नी के बेइंतेहा ममत्त्व और लाड़ दुलार ने माता-पिता की असमय मृत्यु के ग्रहण को एक हद तक हटा दिया था। आकाश और श्रद्धा की मृत्यु को करीब चार वर्ष बीत चले। आशीष एमबीबीएस के अंतिम वर्ष में आ गया था।

एक अरसे बाद इकलौती, वह भी लगभग वृद्धावस्था की संतान को आंखों के सामने पा डॉक्टर भावेश अपने आपको मन की भीतरी तह तक तृप्त संतृप्त पा रहे थे। एक पुत्र होने के अहसास मात्र ने मानो उनकी जिजीविषा को नए सिरे से ताजा कर दिया था। वे सोचा करते, देर ही सही लेकिन विधाता ने आशीष को उनके पास भेज कर उनके जीवन को भरपूर खुशियों से भर दिया था।

लेकिन अगर कुदरत इंसानी जिंदगी की शतरंजी बिसात के हर खाने को बस सुख सुकून की सतरंगी धुप से ही भर देती, तो जिंदगी जिंदगी ना कहलाती। डॉक्टर भावेश को निकट भविष्य में अपने जीवन में आने वाले पूर्ण सूर्यग्रहण का तनिक भी आभास होता तो उन्हें एक सांस लेना तक दूभर हो जाता।

आशीष अभी मेडिकल के अंतिम वर्ष में ही था कि एक दिन डॉक्टर भावेश के विशाल पुस्तकालय में उनकी किताबों के बीच छुपी एक बहुत पुरानी डायरी के पन्नों को पलटते ही सन्न रह गया। डायरी के अंतिम पृष्ठ पर मेरा आशीष... मेरा आशीष... मेरा बेटा... मेरा बेटा से भरा हुआ था। यह सब देख आशीष घोर अचरज से भर गया। आशीष तो उसी का नाम है। ताऊ जी ने उसका नाम अपनी डायरी में क्यों लिख रखा था। डायरी थी सन उन्नीस सौ उनहत्तर की। तो ताऊजी पापा को पिछले कई वर्षों से जानते हैं, लेकिन कैसे? अपना और डॉक्टर भावेश का वास्तविक रिश्ता जानने की निरंतर बढ़ती तीव्र जिज्ञासा को वह दबा नहीं पाया और अपने किसी बुजुर्ग की निजी डायरी पढ़ने की अपराध भावना को जबरन दबा उसने उसे लगभग एक सांस में शुरू से आखिर तक पढ़ डाला। एक बार के पढ़ने में उसके मस्तिष्क में अपने और डॉक्टर के रिश्ते की कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर पाई। हां, एक अबूझ सनसनीखेज तथ्य के सामने आने की आशंका से उसके किशोर स्नायु अवश्य तन उठे और हृदय की बढ़ती धड़कनों के साथ एक बार फिर से वह पूरी डायरी शुरू से अंत तक पढ़ गया।

दूसरी बार डायरी पढ़ते ही डॉक्टर भावेश और उसके रिश्ते की जो स्पष्ट तस्वीर उसके मनो मस्तिष्क में उभर कर आई, उसका एहसास कर उसे यूं अनुभव हुआ मानो उसके पांवों तले की ठोस जमीन भुरभुरी रेत में बदल गई। उसका जिया हुआ एक एक क्षण सुखी रेत की मानिंद उसकी बंद मुट्ठी से सरक गया, मानो किसी अनादि शून्य ने उसके संपूर्ण अस्तित्व को निगल लिया हो। तो डॉक्टर भावेश उसके वास्तविक पिता हैं। तो, तो पापा उसके अपने प्यारे पापा, उसके कुछ भी नहीं थे। मां तो खैर उसकी अपनी मां थी। गनीमत यही थी कि वह उन्हीं की कोख में पल कर बड़ा हुआ था। लेकिन उसके प्यारे दुलारे पापा, जिन्होंने उसके कुछ भी नहीं होकर उसे कितना असीम दुलार दिया, यह जानते हुए कि उसकी रगों में उनके विश्वासघाती मित्र का लहू बह रहा है।

डॉक्टर भावेश जिनको वह पिछले चार वर्षों से पिता समान पूजने लगा था, वह तो निरे नराधम निकले। अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ छल करने में उन्हें लेश मात्र भी संकोच नहीं हुआ। दोस्त तो दोस्त, उन्होंने तो एक डॉक्टर की शपथ की पवित्र मर्यादा तक की लाज नहीं रखी। असीम घृणा से आशीष का सर्वांग कांप उठा और तीव्र मानसिक उद्वेग से उसके स्नायु मंडल के सभी स्नायु मानो सितार के तारों की भांति भीषण तीव्रता से तन उठे ।

उस एक ही क्षण में न जाने क्या हुआ, मेधावी, कुशाग्र बुद्धि डॉ आशीष जो अभी-अभी मेडिकल कॉलेज के कुलपति के हाथों स्वर्ण पदक लेकर लौटा था, एक विरक्त वैरागी में बदल गया।

सुस्त कदमों से वह धीरे-धीरे अपने कमरे में गया और दरवाजा बंद कर लेट गया। धीरे-धीरे विगत जीवन के गुजरे हुए लम्हे उसकी आंखों के सामने आने लगे। डॉक्टर भावेश की डायरी पढ़कर बनाई गई उसकी घटना श्रृंखला की टूटी कड़ियां जुड़ने लगीं। आज उसकी समझ में आया, क्यों उसकी मम्मी उसके जन्मदिन पर खुश होने की बजाय आंसू बहाया करती थी? क्यों उसके पापा, प्यारे पापा को उसका जन्मदिन मनाने की कोई उत्साह नहीं रहा करता था?

आज तक उसे अच्छी तरह से याद है, वह तब शायद सात वर्ष का रहा होगा। अपने एक दोस्त के जन्मदिन की पार्टी से लौट कर आने के बाद उसने अपनी बाहें मम्मी के गले में डालते हुए उनसे पूछा था, "मेरे सभी दोस्त अपना जन्मदिन मनाते हैं। आप मेरा जन्मदिन क्यों नहीं मनाती हो?" कि मम्मी की आंखों में आंसू भर आए और वह उसे अपने सीने से चिपका फूट फूट कर रो उठीं थीं। उन्हें यूं रोता देख वह डर गया और उसने मम्मी से कहा, "मम्मी, मम्मी, प्लीज़ रोओ मत। अगर आपको मेरा जन्मदिन मनाना अच्छा नहीं लगता तो मत मनाना। अब मैं आपको कभी अपनी वर्षगांठ मनाने के लिए नहीं कहूंगा। बस रोओ मत चुप हो जाओ।"

किसी तरह रुलाई रोकते हुए मम्मी ने उससे कहा, "नहीं मेरे बच्चे, इस बार तेरा जन्मदिन में बड़ी धूमधाम से मनाऊंगी। तेरे लिए नई ड्रेस लाऊंगी। तू अपने सभी दोस्तों को घर पर बुलाना, उनके लिए बहुत अच्छी-अच्छी चीजें लाऊंगी। बस अब तो खुश?"

जन्मदिन मनाने के इस भरपूर आश्वासन को सुनकर वह खुशी से झूम उठा और मां के सीने से चिपक गया। उसे सीने से चिपकाए चिपकाए मां का फिर बहुत देर तक हिचकी ले ले कर रोने ने उसे फिर से एक बार कौतूहल से भर दिया और उसका बालमन एक अजीब दुविधा के बीच झूल उठा।

इतने साल गुजर जाने पर भी उसे आज तक याद है, शाम को पापा के आने पर मम्मी ने उनसे कहा, "सुनते हो जी, इस बार हम अपने आशीष का जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाएंगे। जब से वह अपने दोस्त की जन्मदिन की पार्टी से लौटा है, तभी से रट लगाए हुए है, इस बार उसकी वर्षगांठ बड़ी धूमधाम से मननी चाहिए।" इस उत्साह भरे कथन पर पापा ने प्रतिक्रिया में बहुत ही ठंडेपन से धीमे से स्वरों में कहा, "अच्छा पहले जन्मदिन तो आने दो, फिर देखेंगे।” पापा के इन शिथिल, बुझे हुए स्वरों से उसका बाल मन बहुत व्यथित हो उठा, और वह पलंग पर मुंह छुपाकर पड़ गया।

जब जब वह दोस्त की जन्मदिन की पार्टी से लौटकर आता, यह प्रश्न उसे बार-बार तंग किया करता कि उसके मम्मी पापा क्यों दूसरों के मम्मी पापाओं की तरह खुशी-खुशी उसका जन्मदिन कभी नहीं मनाते?

उसका आठवां जन्मदिन उसके स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अभी तक जीवंत है। सुबह से ही उसने अपने जन्मदिन मनाए जाने की बाल सुलभ रट लगा रखी थी। मम्मी ने भी पापा से उसकी बहुत सिफारिश की थी, लेकिन पापा नहीं माने। दोनों में झगड़ा भी हुआ, और मम्मी सूजी आंखों से उसे बाजार लेजाकर उसे उसकी मनपसंद ड्रेस, मिठाई और एक खिलौना दिलवा कर लाई बस। दोस्तों की तरह से अपना जन्मदिन नहीं मनाए जाने के दुख ने उसे काफी दिनों तक बहुत पीड़ा पहुंचाई थी ।

आशीष की समझ में आज आया उसके जन्मदिन नहीं मनाने के पीछे पापा के हठ और मम्मी के आंसुओं का राज और बस एक झटके से डॉक्टर भावेश के प्रति संजोए गए श्रद्धा और आदर का भाव मानो भाप बनकर उड़ गया, उनके प्रति वितृष्णा विरक्ति की सूखी रेत का ढेर छोड़ते हुए।

बस उसी क्षण मेडिकल कॉलेज का सबसे होनहार, मेधावी स्वर्ण पदक प्राप्त डॉ आशीष अपने जन्मदाता का घर छोड़कर निकल पड़ा। डॉक्टर भावेश का घर छोड़ कर वह अपने अभिन्न मित्र अनिमेष के घर पहुंचा जहां उसने उससे कहा कि कुछ नितांत व्यक्तिगत कारणों से वह अब डॉक्टर भावेश के यहां नहीं रहना चाहता। डॉक्टर अनिमेष ने उसे ज्यादा बिना कुछ पूछे अपने घर में ठहरा लिया। कुछ दिनों बाद वह अमेरिका से मेडिकल साइंस में उच्च डिग्री के लिए अध्ययन हेतु अमेरिका चला गया। अध्ययन खत्म होने पर अब डॉक्टर आशीष दिल्ली में अपना निजी नर्सिंग होम अत्यंत सफलतापूर्वक चला रहा है। आशीष के मित्रों से उसका पता लेकर डॉक्टर भावेश ने कई बार आशीष से फोन पर बात करनी चाही, लेकिन डॉ आशीष हर बार उनसे बिना बात किए उनका फोन काट देते हैं।

समय का चक्र अनवरत चलता गया। डॉक्टर भावेश पिच्यासी वर्ष के होने आए तथा पिछले पंद्रह दिनों से वह अपनी मृत्यु शैया पर पड़े आखिरी सांसे गिन रहे हैं।

बार-बार वह अपनी पत्नी को आशीष को बुलवाने के लिए कहते। उस दिन तो डॉक्टर भावेश की सांसे रुकने लगी थीं, जब उनकी पत्नी ने आशीष की लाख मिन्नतें कर उसे एक बार डॉक्टर भावेश को देख जाने के लिए कहा, "बेटा आशीष, तुम्हारे पिता की सांसें शायद तुम्हें देखने के लिए अटकी हुई हैं। तुम्हें देख कर शायद वह सुकून से अपनी आखिरी सांस ले सकें," लेकिन आशीष तो जैसे पत्थर का बन कर रह गया था। डॉक्टर भावेश के लिए उसके मन में कोई भावनात्मक अनुभूति शेष नहीं रही थी।

डाक्टर भावेश बेटे को एक नजर भर देखने की आस मन में लिए चिर निद्रा में सो गए। पिता की मृत्यु की खबर सुनकर आशीष ने मन ही मन कहा, ‘पापा मम्मी, आज मैंने आप दोनों के अंकल की वजह से ताउम्र तड़पने का हिसाब चुका दिया। उनके अंतिम समय में उनके पास नहीं जाकर मैंने उन्हें बहुत सताया, लेकिन यह दुख शायद उनकी वजह से आप दोनों के भोगे हुए दुख से ज्यादा नहीं।’

आशीष की आंखों से दो आंसू चू पड़े।