परसू की मृत्यु हुए 13 दिन बीत चले। आज तेरहवीं के दिन उसकी पगड़ी की रस्म चल रही थी। घर का आंगन परिवार कुटुंब के सदस्यों से अटा पड़ा था। आंगन में पाटे पर उसकी सबसे बड़ी बेटी श्रद्धा बैठी हुई थी। पाटे पर परसू की बड़ी बेटी को बैठा हुआ देखकर गांव बिरादरी वाले मंद स्वरों में अपना आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे और श्रद्धा के ताऊ तो क्रोध के अतिरेक में बोल उठे, "अरे यह क्या जग से निराली बात कर रही हैं परसू की छोरियां। छोरियों के भी क्या कभी पगड़ी बंधी है आज तक? अरे जरा यह तो सोचो बाप को मोक्ष नहीं मिलेगा तो तुम चारों क्या कभी सुखी रह पाओगी?"
यह सब सुनकर श्रद्धा बोल उठी "ताऊजी, बाबू ही बोल कर गए थे कि मेरा क्रिया कर्म मेरी बेटी करेगी और वह भी मेरे नाम की पगड़ी बंधवाएगी। हम तो बस बाबू की आखिरी इच्छा का मान रख रहे हैं।"
उसका समर्थन करते हुए परसू के बड़े और मझले दामाद एक स्वर में बोल उठे, "हम सब बस बाबूजी की आखिरी इच्छा पूरी कर रहे हैं। आप सब से हाथ जोड़कर विनती है कि पगड़ी की रस्म शांति से पूरी हो जाने दीजिए।"
इस तरह पारंपरिक चलन के विपरीत परसू की बड़ी बेटी को उपस्थित जनों के विरोध और असहमति के स्वरों के मध्य पगड़ी पहना दी गई। श्रद्धा ने अपनी छोटी बहनों और उनके परिवारों के प्रति पिता की भारी कर्तव्य और उत्तरदायित्व के भार से भारी हो आई पगड़ी पहन ली और कब वह सुख भरे विगत दिनों से आंख मिचौली खेलने लगी उसे पता तक नहीं चला । वे दिन कितने सुखद थे जब उसके ऊपर मां और बाबू का सुकून भरा साया था। वे सब लोग कितने खुश थे। उनके घर आंगन में असीम सुख था।
उसे याद है उसने एक दिन बाबू से कहा था, "बाबू मुझे साइकिल ला दो। वह मिश्राइन का बेटा हमेशा मुझे चिढ़ाता है कि मैं कभी साइकिल की सवारी नहीं कर सकती क्योंकि मैं लड़की हूं।"
" अरे नहीं, नहीं, हम अपनी रानी बिटिया के लिए कल ही शहर से साइकिल ला देंगे।"
"अरे श्रद्धा के बाबू, क्यों छोरियों को छोरों के रंग में रंगने पर तुले हुए हो? छोरियां भी कभी साइकिल चलावें हैं?"
"अरे शोभा, तू भी कैसी पुराने जमाने की बातें कर रही है? अरे आज समय बदल गया है। छोरी साइकिल ही तो मांग रही है, हवाई जहाज थोड़े ही मांग रही है। मेरी छोरियां किसी बात में कम है क्या छोरों से बतइओ? चारों की चारों इतनी अच्छी तरह से पढ़ लिख रही हैं। रूप गुणों की खान है मेरी चारों बेटियां। बतइओ जरा, पूरे गांव में मेरी बेटियों जैसी सुंदर और सुशील किसी की छोरियां है क्या? नहीं ना?"
"बस, बस श्रद्धा के बाबू। मेरी छोरियों को नजर लगाओगे क्या?" तनिक हंसते हुए मां ने बाबू से कहा।
यह सब याद करते करते श्रद्धा की आंखों की कोरें भीग आईं।
मां बाबू की जोड़ी साक्षात राम सीता की जोड़ी लगा करती। नाम के अनुरूप उसकी मां अप्रतिम रूप की सौगात के साथ जन्मी थीं। माँ बताया करतीं कि मात्र 12 वर्ष की कच्ची उम्र में वह गौने के बाद पिता के घर आ गई थीं। एक दूसरे की अटूट नेह प्रीत के बंधन में बंधे वे आदर्श दंपति के रूप में जाने जाते। मां बताया करतीं कि बाबू कभी उसे अकेले मायके या और कहीं नहीं जाने देते थे। जहां जाते साथ जाते या फिर उसी दिन वापस लिवा लाते। कुल मिलाकर उनसे मां का बिछोह एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन कहते हैं ना विधाता भी सच्ची प्रीत करने वालों की ही परीक्षा लेता है। गांव में डेंगू फैलने पर शोभा भी डेंगू का शिकार हो गई और समय पर उपचार न मिलने के कारण मात्र अड़तीस वर्ष की अल्पायु में स्वर्ग सिधार गई ।
यू अकस्मात इतनी कम उम्र में पत्नी का साथ छूट जाने से परसू अपना मानसिक संतुलन गंवा बैठा और अवसाद ग्रस्त हो गया। पत्नी की मृत्यु के वर्ष भर बाद तक वह खेती-बाड़ी का ध्यान न रखता और दिन दिन भर बस रोया करता। किसी की सलाह पर उसकी बेटियां पास के शहर के एक नामी मनोचिकित्सक से दवाइयां दिलवा कर लाईं जिससे उसकी स्थिति में निरंतर सुधार आता गया और धीरे-धीरे वह खेती-बाड़ी के काम में रुचि लेते हुए सामान्य हो आया। बेटियां और दामाद पिता में आए इस परिवर्तन को देखकर बहुत खुश हुए।
वक्त बीतता गया। बढ़ती उम्र के साथ परसू सोचने लगा कि उसे अपनी जमीन जायदाद का बंटवारा कर वसीयत बना देनी चाहिए। बेटियों को बेइंतेहा प्यार करने के बावजूद वह बहुत पुराने ख्यालातों का आदमी था, और अपनी वसीयत में उसने अपनी सारी जमीन जायदाद अपने बड़े भाई के बेटों के नाम लिख दी।
उसके कुछ घनिष्ठ दोस्तों ने उसे समझाया भी कि कायदे से उसे अपनी सारी संपत्ति और जमीन खेत भाई के बेटों के बदले बेटियों के नाम करनी चाहिए। वही अंतिम समय तक उसकी सेवा करेंगी और उसके काम आएंगी, लेकिन उस वक्त उसने किसी की बात पर ध्यान नहीं देते हुए आखिरकार अपनी जमीन जायदाद खेत भतीजों के नाम कर दी।
भोला परसू अपने भाई भतीजों की स्वार्थी मनोवृति से सर्वथा अनजान था। वह शुरू से अपने भाइयों के साथ रहता आया था। भाई भतीजे उसकी संपत्ति पाने की लालसा में उसका काफी ध्यान रखते, लेकिन भतीजों के नाम जमीन जायदाद लिखे जाने के बाद उसके प्रति उनके व्यवहार में ठंडापन आने लगा। भाई भतीजे अब उसके खाने-पीने कपड़े लत्तों का उतना ध्यान नहीं रखते जितना कि वे पहले रखते थे। उन्हें परसू अब बोझ लगने लगा था।
वह अब पैंसठ वर्ष का होने आया था। उसदिन परसू की तबीयत थोड़ी खराब थी जिसके कारण वह उस दिन खाट से नहीं उठा। दिवाली का दिन था। भाई भतीजे ने मिलकर लक्ष्मी पूजन कर लिया और परसू को पूजा में शामिल होने के लिए एक बार बुलाया तक नहीं। पिता के साथ यह अपमानजनक व्यवहार देखकर उसकी छोटी बेटी और दामाद जो उसके घर के पास ही रहते थे, उसके ना कहने के बावजूद उसे अपने घर ले गए । उन्होंने उससे कहा "बहुत हो गया बाबू, अब आप हमारे घर रहेंगे। जिस घर में आपका मान ना हो वहां हम आपको हरगिज़ नहीं रहने देंगे।" उसके बाद दामाद ने परसू को घर का बुजुर्ग होने का सम्मान देते हुए अपने माता-पिता के साथ उसके हाथों भी लक्ष्मी पूजन करवाया।
उस दिन परसू को पहली बार ऐहसास हुआ कि खून के रिश्तो के सामने सभी रिश्ते फीके पड़ जाते हैं। ऐन दिवाली वाले दिन अपने पुरखों का घर छोड़ने और बेटी के यहां त्यौहार मनाने पर उसका परंपरावादी मन कुछ बेचैन अवश्य हुआ, लेकिन यह सोचकर उसने अपने आप को दिलासा दिया कि समय बदलने के साथ-साथ उसे भी अपने आप को बदल लेना चाहिए, और नए दौर में बेटियों को ही बेटा मानना चाहिए। परसू ने अपने मन को समझा ही लिया।
बेटी के यहां रहना उसे बहुत अच्छा लगा। जहां भाई भतीजे के घर उसे अक्सर अपने अनचाहे होने का एहसास होता, उनके व्यवहार में बेगानापन और ठंडापन नज़र आता, बेटी दामाद के घर उनके स्नेहिल व्यवहार से वह अभिभूत हो गया। उनके साथ उसके समधी समधन भी उससे बहुत अच्छा व्यवहार करते। नाती नातिन नाना नाना की रट लगाए उसके आगे पीछे घूमते रहते। परसू को बच्चों का साथ बहुत अच्छा लगता।
तीन महीने बाद उसके बड़े बेटी दामाद बहुत आग्रह कर उसे अपने घर ले गए। वहां भी उसे एक अनोखे अपनेपन का एहसास हुआ जिसकी कमी उसे अपने भाई भतीजे के यहां लगती थी। वह एक-एक कर चारों बेटियों के यहां रहा और सभी के यहां उसे वह ममत्व और अपनत्व मिला जिसकी कमी उसे अपने भाई भतीजे के यहां लगती थी। देर ही सही लेकिन उसे अब एहसास हो आया कि अपनी संतान के सामने सारे रिश्ते बेमानी हैं। परसू का मन अपनी बेटियों में पूरी तरह से रम गया।
अब भाई भतीजे के घर की अपेक्षा बेटियों के यहां रहना उसे बहुत अच्छा लगने लगा और एक दिन उसने वकील बुलाकर अपनी वसीयत बदलकर अपनी सारी चल अचल संपत्ति बराबर बराबर अपनी चारों बेटियों के नाम कर दी।
बेटियों के पास रहते हुए परसू को दस वर्ष होने आए। सभी नाते, रिश्तेदार, सगे संबंधियों के सामने परसू अपनी चारों बेटियों की बड़ाई करते नहीं अघाता। वह सब से कहा करता, "भगवान, अगले जन्म में भी मुझे इन चारों बेटियों का पिता बनने का सौभाग्य देना।"
कुछ दिनों से परसू की तबीयत कुछ ज्यादा खराब चल रही थी। बेटी दामाद ने उसकी सेवा सुश्रुषा में कोई कसर नहीं छोड़ी। शाम होते होते उसकी बोली बहुत क्षीण हो गई। उसने दूसरे गांव में रहने वाली अपनी बेटियों और दामादों को भी बुलवा भेजा, और सबके इकट्ठे होने पर उनसे कहा, "मेरी परम इच्छा है कि मेरे मरने के बाद तुम चारों बेटियां मुझे कंधा देकर श्मशान पहुंचाओ । श्रद्धा तू मेरी सबसे बड़ी बेटी है मुझे मुखाग्नि तू ही देगी। मेरा अंतिम संस्कार करेगी और मेरे नाम की पगड़ी भी तू ही पहनेगी। मेरे बाद अपनी तीनों बहनों का माँ की तरह ध्यान रखना। देखना कि वह किसी बात से दुख ना पाए। मेरे बाद बहनों की पूरी जिम्मेदारी तेरे ही ऊपर है।"
चारों बेटियां पिता की यह बात सुनकर सिसक उठीं।
अगले ही दिन भोर के वक्त परसू ने आखिरी सांस ली । परसू की मौत की खबर सुनकर उसके सारे भतीजे, भाई और कुटुंब के सभी लोग बड़ी बेटी के घर आ गए। श्रद्धा के परसू को मुखाग्नि देने के निर्णय की खबर सुनकर उस के भाई ने अपनी चारों भतीजियों से कहा, "बेटा, परसू तो बुढ़ापे में सनक गया था, इसलिए उसने तुझे मुखाग्नि देने के लिए कहा। हम क्या मर गए हैं जो हमारे होते हुए तुम चारों अर्थी को कंधा दोगी और श्रद्धा मुखाग्नि देगी। तुम चारों तो घर में आने जाने वालों को संभालो। क्रिया कर्म की सारी व्यवस्था हम संभाल लेंगे।"
तभी बड़ी बेटी श्रद्धा बोल उठी, "बाबू को मुखाग्नि मैं दूंगी। यही बाबू की अंतिम इच्छा थी और मैं उनकी इस आखिरी इच्छा को हर हालत में पूरी करूंगी।"
तीनों बहनों और सभी दामादों ने भी अत्यंत दृढ़ता से बड़ी बहन के इस कथन का समर्थन किया।
बेटियों के हाथों परसू को कंधा देने और क्रिया कर्म की बात दूरदराज के गांवों में फैल गई और उसकी अंतिम यात्रा में सुदूर गांव के लोगों ने भी शिरकत की। परसू की बड़ी बेटी ने आंसुओं से डबडबाई आंखों से पिता को मुखाग्नि दी। गांव भर के लोग हैरान थे। कुछ नाराज थे तो कुछ को ऐसी बेटियों पर नाज हो रहा था ।
फिर आज तेरहवीं के दिन बड़ी बेटी को पगड़ी पहनाया जाता देखकर गांव के सरपंच, पटवारी, तहसीलदार और बीडीओ आदि अनेक अधिकारियों ने परसू के इन क्रांतिकारी कदमों की प्रशंसा की और कहा कि परसू सही मायनों में आधुनिक और प्रगतिशील थे, जिन्होंने अपनी नई सोच से अपने समाज और गांव को एक नई पहचान दिलाई। उसने बता दिया कि बेटियां किसी भी मायने में बेटों से कम नहीं है और बेटियां भी अपने पिता का सबसे बड़ा संबल होती हैं।
यह सब देखकर परसू की बेटियों की आंखें नम हो आईं अपने बाबू की याद में और उन्हें अपने बाबू पर फ़ख्र हो आया। उन्हें लगा उनके बाबू जैसे उनके आसपास ही थे और उन्हें आशीर्वाद दे रहे थे।