रामदीन काका मेरे घर के दालान के सामने की दीवार चिन रहे थे। इस दीवार को बनवा पाना ही तो मेरा चिरप्रतीक्षित सपना था जो आज पूरा होता दिख रहा था। ईंटों की चिनाई देखते देखते कब मैं अपने आज की दीवार फांद पुरानी तल्ख यादों की भूल भुलैया में भटकने लगी, मुझे भान तक न हुआ।
वो शाम मुझे आज भी याद है। बाबूजी तभी घर के आंगन के सामने की दीवार से सटे घर में रहने वाले मालदार कसाइयों के जवान बेटों के हाथों पिट कर आए थे। दादी की बुलंद आवाज़ घर भर में गूंज रही थी, “अरी यशी, जरा बाम ला कर दीयो, देखियो कितनी बुरी तरह मारा है ज़ालिमों ने तेरे बाबूजी को। अरे नासपीटों, कीड़े पड़ेंगे तुम्हारे बदन में, नरक भी नसीब ना होगा तुम्हें मरने के बाद..," दादी उन सब को शिद्दत से कोस रहीं थीं और बाबूजी धीमे स्वरों में कराह रहे थे। माँ डरी सहमी निःशब्द रसोई में खाना पका रहीं थीं।
उन्हें जी भर कर कोसने के बाद अब दादी के निशाने पर हमेशा की तरह मां आ गईं, “अरे छोरियों की पूरी की पूरी फौज खड़ी करके रख दीनी है इस मुई करमजली ने। पांच पांच छोरियां जन कर मेरे हीरे से बेटे की कमर तोड़ दीनी है इस नासपीटी ने। इत्ता न हुआ कि एक बेटा ही जन देती जो आज बाप का सहारा तो बनता। आज जो इस घर में एक जवान जहान बेटा होता तो किसकी हिम्मत होती आज यूं इस तरह हमारी तरफ आंख उठा कर देखने तक की?”
कि तभी घर के दालान के सामने की दीवार की कसाइयों की खिड़की खुली और उनकी रसोई में में पकते गोश्त की महक का तेज भभका घर भर में फैल गया। खिड़की के उस तरफ उस घर के बेटों की तंज़ कसती, ठठा कर हंसने की आवाज़ें आने लगीं, “अरी अम्मा, सालन पका रही है क्या आज? खूब मसालेदार चटपटा बनइयो जो खा कर हमारे दुश्मनों की आत्मा तक तर हो जाये”।
हमारे दालान और उनकी रसोई के बीच की उस दीवार की खिड़की ही सारे फसाद की जड़ थी। जब से एक बरस पहले उन लोगों ने पुराने शाकाहारी मकान मालिक से मकान खरीदा, हमारा जीना दुश्वार हो गया। जब जब उनके घर गोश्त पकता, उनकी खुली खिड़की से आती महक की वजह से हमारा अपने ही घर में काला पानी हो जाता। हम कट्टर निरामिष लोगों के लिए घर के हर कोने में फैली मांस की गंध किसी सजा से कम न होती। उस खिड़की से आती गंध से मुक्ति पाने के लिए बाबूजी ने अपनी तरफ उनकी खिड़की वाली दीवार से सटते हुए एक और दीवार चढ़वानी चाही, लेकिन उन लड़ाकू ज़बर लोगों ने उसे बनने नहीं दी। इधर हम दीवार खड़ी करवाते, उधर रात के अंधेरे में उनके लड़के लपाड़े उसकी एक एक ईंट गिरा डालते। दोनों परिवारों के बीच इस नई दीवार को लेकर बनी रंजिश बढ़ती ही गई। वे हमें तंग करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते।
आज तो हद ही हो गई। शाम को जब मैं दालान बुहार रही थी, उनके लड़के अपने कुछ शोहदेनुमा दोस्तों के साथ उसी खिड़की के सामने आ खड़े हुए और मुझ पर भद्दी भद्दी फब्तियां कसने लगे।
बार बार हमारी दीवार गिरा देने से बाबूजी पहले ही बेहद परेशान थे। उसपर आज उनके बेटों की निरंकुश गुंडागर्दी से त्रस्त बाबूजी ने जब तनिक गुस्से से इस बाबत उनके घर के बुजुर्गों से बात की तो वे लोग उल्टा बाबूजी को आंखें दिखाने लगे। दोनों तरफ की गुस्सा गुस्सी में बात बढ़ती ही गई और उनके बेटों ने बाबूजी पर हाथ उठा दिया।
हमारे घर की आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी कि हम इस घर को बेच कहीं और नया घर ले लेते।
आज जबसे बाबूजी पिट कर आए हैं, मेरे मन में भीषण आक्रोश का ज्वालामुखी धधक रहा है। अपनी बेबसी पर रोना आ रहा है। क्रोध आरहा है अपने लड़की होने पर। कि तभी कुछ सोच कर मैंने दर्द से कराहते बाबूजी से कहा, “बाबूजी, बहुत हो गई इनकी मनमानी, आप इनके खिलाफ थाने में रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाते? शायद पुलिस ही इस समस्या को सुलझा दे”, लेकिन बाबूजी ने मेरी बात सुनते ही खारिज कर दी।
“पुलिस भी रईस लोगों का ही साथ देती है बेटा। हम गरीबों की सुनवाई कहीं नहीं”, लेकिन मैं इरादों की पक्की उनके सामने अड़ी रही, “ ऐसे कैसे पुलिस इन लोगों का साथ देगी? कोई गुंडा राज थोड़े ही है जो हर जगह इन की ही चलेगी। नहीं बाबूजी, नहीं, यूं मार खा कर चुप रहे तो इनकी तो हिम्मत बढ़ती ही जाएगी। चलिये बाबूजी मैं चलती हूँ आपके साथ थाने”। इस बात पर वह चिहुंकते हुए बोले, “ना ना बेटा, थाने बहन बेटियों के जाने की जगह नहीं। चल, तू कहती है तो मैं चला जाता हूं।"
बाबूजी थाने गए और उल्टे पैरों वापिस लौट आए पस्त, हताश। आते ही मायूस स्वरों में बोले, “अरे, मैं न कहता था, जिसकी लाठी उसकी भैंस? हम गरीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं बेटा। जिसके पास पैसा है, ताकत है, वही जीतता है। थाने पहुंचा तो सामने वाले लड़के थाने के बाहर थानेदार के साथ हा हा हू हू कर रहे थे, फिर मैं भीतर जा कर करता भी क्या?"
उस दिन गरीबी, बेबसी और शोषण से त्रस्त बाबूजी का लाचार, लुटापिटा चेहरा देख कर मैंने मन ही मन प्रण लिया, देखना बाबूजी, एक दिन आपकी यह बेटी आपको लाठी भी दिलवा कर रहेगी और भैंस भी," और उसी क्षण मैंने संकल्प किया, मैं पुलिस अफसर बनूंगी। एक ऊंचे मुकाम पर पहुँच अपने परिवार को इस ज़िल्लत से मुक्ति दिलवाऊंगी।
इस ध्रुव प्रतिज्ञा के बाद फिर मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उस दिन के बाद से मैंने अपने आप को जीजान से पढ़ाई में झोंक दिया। अब पुलिस अफ़सर बनना मेरी जिंदगी का एकमात्र मकसद, मेरा जुनून बन गया।
रास्ता आसान न था लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी। मेरी कड़ी मेहनत रंग लाई और मैंने आई. पी. एस. का कॉम्प्टीशन क्लीयर कर ही लिया। कल ही तो मेरा रिजल्ट आया। रिजल्ट आते ही मैंने जो पहला काम किया, वह था आज दालान के सामने की दीवार बनवाना।
पूरी दीवार बन चुकी थी। आज सामने के घर में मरघट सा सन्नाटा छाया हुआ था।
अब लाठी भी मेरी थी और भैंस भी।