हमराह

रात को नींद की खुमारी में आदतन मैंने अपना हाथ शैलेश के सीने पर रखना चाहा, लेकिन शैलेश की चिरपरिचित छुअन न पाकर मैं बेचैनी में तनिक चैतन्य होते हुए बोल पड़ी, ‘शैलेश शैलेश, कहाँ हो तुम? कि क्षण भर में ही जैसे ही नींद की तंद्रा दूर हुई और यथार्थ का बोध हुआ, मैं बुक्का फाड़ कर रो पड़ी, ‘‘उफ शैलेश ...कहाँ चले गए तुम? तुमने तो वादा किया था, जिंदगी भर साथ निभाने का, फिर क्यूं मुझे इतनी जल्दी बीच राह में छोड़कर चले गए? जिंदगी कितनी मुश्किल है तुम्हारे बिना।’’

जब भी मैं शैलेश को याद करती, सीने में मानों असंख्य बर्छियां चुभने लगतीं। कब अपने बिस्तर पर विकट विकलता में करवटें बदलते हुए मैं अतीत के धूपछांव भरे दिनों से आंख मिचौली खेलने लगी, मुझे भान तक ना हुआ।

मैं शैलेश को कालेज के जमाने से जानती थी। वह मेरा सहपाठी था। उससे मैंने सच्ची प्रगाढ दोस्ती का अर्थ समझा था। कब दोस्ती से कहीं आगे बढ़कर वह मेरी दिल की गहराइयों में उतरता चला गया, मुझे अहसास तक नहीं हुआ।

मेरे माता-पिता अत्यंत उदार और खुले विचारों वाले थे। इसलिये जब मेरी विवाह की उम्र हुई तो पिता ने मुझे बुलाकर मुझसे पूछा था ‘‘बेटा, अब तुम्हारी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई खत्म हुई, अगर तुम्हारी निगाह में कोई लड़का हो तो हमें बेझिझक बता दो।’’

माता-पिता के सहयोग से बिना किसी विरोध और प्रतिरोध के हमारी प्रेम कहानी बहुत सहजता से अपने अंजाम विवाह तक पहुंच गई थी। सभी कुछ हंसी खुशी से निबट गया था।

शैलेश से परिणय सूत्र में बंध मुझे बेइन्तिहा खुशी मिली। पति के रूप में शैलेश एक आदर्श पति था। अच्छी प्रतिष्ठित ऊँची नौकरी, मोटी तनख्वाह, के साथ उसने एक सुख सुविधा सम्पन्न जीवन मुझे दिया था। मुझे हमेशा पलकों पर सहेज कर रखता था। विवाह के बाद के सात वर्ष कैसे बेहताशा खुशी और संतुष्टि में पलक झपकते ही गुजर गए, मुझे पता तक न चला। उसी अवधि में एक नन्हीं सी प्यारी सी परी ने मेरी गोद भर दी थी जिसे पाकर हम दोनो अपनी किस्मत से रश्क करने लगे थे। कि विवाह की सातवीं वर्षगांठ के कुछ ही दिनों बाद मुझ पर दुर्दैव का वज्रपात हुआ था। वह दिन मुझे ताउम्र भुलाए न भुलेगा। उस दिन रविवार था। शैलेश ने मुझ से अपनी पसंदीदा पावभाजी बनाने की फर्माइश कर मुझ से कहा था, ‘‘जया, मैं अभी घर के पिछवाड़े में कूंए की सफाई करवा कर आ रहा हूं, फटाफट पावभाजी बनाकर तैयार रखना। बहुत दिन हो गए तुम्हारे हाथ की लज्जतदार पाव भाजी खाये हुए।”

किस्मत का खेल, मुझ से किया वायदा शैलेश निभा नहीं पाया। उससे पहले ही वह अपनी अनंत यात्रा पर निकल गया था। कूंए में सफाई करने वाले मजदूर का पांव फिसल गया था जिसके कारण वह कराह रहा था और उसे कूंए से बाहर निकलने में मदद करने के लिए शैलेश भी कूंए में उतरा और वहां अचानक विषैली गैस का भभका उठने से दम घुंट कर उसकी मृत्यु हो गई।

प्रारब्ध ने ठीक मेरे घर में आकर मेरे सौभाग्य पर डाका डालते हुए मेरा सर्वस्व छीन लिया था। महीनों तक मैं शैलेश की मृत्यु की वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाई। शैलेश के फोटो को छाती से चिपटा कर मैं एक जिंदा लाश की भांति घर भर में हू हू कर रोती फिरती। उठते-बैठते, सोते-जागते शैलेश के साथ बिताई जिंदगी की मधुर यादें मेरा पीछा न छोड़ती।

मर्मांतक वेदना के उस दौर से बाहर निकलने में मेरी सास ने अपनी मां से बढ़कर मेरा ख्याल रखा था। हमेशा मुझे समझाया करतीं, ‘‘बेटा, तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है। परी का भविष्य संवारना है। उसे एक अच्छा इंसान बनाने का महत दायित्व है तुम्हारे कंधों पर। अपने दर्द से बाहर आओ बेटा।’’

घोर पीड़ा के उन क्षणों में मांजी के हौंसले भरे शब्दों और नन्हीं बेटी के मासूम उदास चेहरे ने मुझमें एक बार फिर से सामान्य रूप से जिंदगी जीने की चाह जगाई। मेरी अपनी मां नौकरी करतीं थी। वह तो बस पिता के साथ महज छुट्टियों में आकर मुझे संभाल जाया करतीं थीं। सास ने ही अपने लाड़ दुलार भरे सहयोगी व्यवहार से मुझे फिर से एक सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया, और थोड़ा धीमे, पर वक्त के साथ मैं शैलेश के साथ के बिना ठिठकते ठहरते ही सही, जिंदगी की डगर पर अकेले अपने दम पर कदम बढ़ाना सीख ही गई।

बिटिया परी अब पाँच वर्षों की होने आई थी। मेरी बियाबान जिन्दगी में रौशनी की किरण थी वह। उसे एक अच्छा इंसान बनाना और अच्छी शिक्षा दे एक प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचाना अब मेरी जिंदगी का एकमात्र ध्येय था।

कि तभी मेरे शांत जीवन में हलचल मचाते हुए दिवाकर का प्रवेश हुआ। दिवाकर शैलेश का अभिन्न मित्र था एवं उसके और हमारे परिवार लगभग कुछ वर्षों तक जयपुर में प्रगाढ़ मैत्री की डोर में बंधे रहे थे। उन वर्षों में समय-समय पर एक-दूसरे के घर आते जाते, साथ-साथ उठते-बैठते शैलेश, दिवाकर, मैं और निकिता एक-दूसरे के अत्यंत निकट आ गए थे। फिर दिवाकर का स्थानांतरण दिल्ली हो गया था। फिर भी गाहे-बगाहे दोनों परिवार छुट्टियों में मिलते रहते थे। कि तभी दिवाकर के हंसते खेलते पारिवारिक जीवन पर निष्ठुर काल ने अपनी क्रूर दृष्टि डाली और निकिता, दिवाकर की पत्नी को उससे दूर कर दिया । निकिता को रक्त कैंसर निकला था और मात्र वर्ष भर की अवधि में अतिशय पीड़ा सहते हुए निकिता ने इस दुनिया से महाप्रयाण किया। निकिता की मृत्यु के उपरांत दिवाकर का स्थानांतरण फिर से एक बार जयपुर हो गया था। दोनों परिवारों के संबंध तो पहले से ही बहुत अच्छे थे। मैं और दिवाकर, और उनके बच्चे परी और नक्श एक बार पुनः एक-दूसरे के सम्पर्क में आए थे। दिवाकर का बेटा नक्श अक्सर पिता की अनुपस्थिति में परी से हंसने बोलने आ जाया करता था, और उसे लेने के लिये दिवाकर को मेरे घर बहुधा आना पड़ता। शैलेश की मृत्यु के उपरांत मैं सभी पुरुषों से मर्यादापूर्ण दूरी बनाकर रखती थी। इसी के चलते मैं अब दिवाकर से भी उसके घर आने पर ज्यादा मुक्त रूप से नहीं हंसती बोलती।

लेकिन अब दिवाकर को लेकर मांजी के इरादे कुछ और ही थे। पोती परी को एक स्नेही पिता की संबल भरी छत्रछाया देने और मेरे जीवन को एक बार फिर से खुशियों से रौशन करने के उद्देश्य से मांजी ने बिना मेरी स्वीकृति लिये हुए मेरा और दिवाकर का विवाह करने का निष्चय किया। मेरी ननद ने मुझे माँजी की इस इच्छा के बारे में बताया था। लेकिन इस विवाह में एकमात्र अड़चन थी तो वह थी दूसरे विवाह के लिए मेरी प्रबल अनिच्छा।

उस दिन नक्श घर आया था और उसने परी को बताया था कि वह उस दिन पिकनिक पर शहर के पास एक पिकनिक स्पाट तक जा रहे थे। यह सुनकर परी भी नक्श के साथ जाने के लिए जिद्द करने लगी, जिसे देखकर मांजी ने मुझसे कहा, ‘‘जया बेटी, तुम भी दिवाकर और परी के साथ पिकनिक चली जाओ, तुम्हारा दिल बहल जाएगा।’’

लेकिन मैंने दृ़ढ़ और सख्त लहजे में दिवाकर और बच्चों के साथ पिकनिक पर जाने से इंकार कर दिया था।

मेरी ननद मेरे ही शहर में रहती थी और गाहे बगाहे घर आजाया करती थी। अक्सर वह दिवाकर के विषय में उससे मेरे विवाह के दृष्टिकोण से मेरे मन की थाह लेने की कोशिश किया करती। मैं जब भी दिवाकर के बारे में सोचती मुझे लगता दिवाकर में एक अच्छे जीवन साथी की हर खूबी और खासियत मौजूद थी। बस दिवाकर में एक अवगुण था और वह था उसका तुनकमिजाज स्वभाव। वह बहुत जल्दी किसी बात के अप्रिय लगने पर क्रोधित हो जाता था लेकिन फिर उसी तरह बहुत जल्दी सामान्य, सहज भी हो जाता था। मांजी की बुजुर्ग, तजुर्बेकार आंखें दिवाकर की एक पति के रूप में हर अच्छाई बुराई को भांप गई थीं और उन्होंने मन ही मन निष्चय कर लिया था कि वह हर हाल में मुझे और दिवाकर को विवाह के अटूट बंधन में बांध कर रहेंगी। उनके दृष्टिकोण से एक पति के तौर पर दिवाकर में अच्छाईयें ही अच्छाइयें भरी पड़ी थीं। उनके हिसाब से उसकी तुनकमिजाजी कोई खास खोट न था।

इधर पिछले कुछ महीनों में मैं अपने और दिवाकर को लेकर मांजी के नजरिये को लेकर बेहद असहज महसूस कर रही थीं।

वैसे मांजी के बार-बार दिवाकर के साथ उसके विवाह का मुद्दा उठाने पर मैंने भी अपने और दिवाकर के मेल के बारे में सोचा था। लेकिन दिवाकर के स्वभाव, चरित्र, आदतों के अनुरुप स्वयं को एक बार फिर से ढालना, मुझे अत्यंत कष्टसाध्य, निरर्थक और गैरजरूरी लगा था। और अगर मैं दिवाकर से विवाह कर भी लेती और फिर दिवाकर की तुनकमिजाजी हमारे रिश्ते में कड़वाहट घोल देती तो फिर क्या होगा ? क्या मैं दिवाकर के प्रति उन कोमलतम प्रेमिल अनुभूतियों का अहसास कर पाऊंगी जिन्हें मैंने शैलेश के प्रति अनुभव किया था। क्या इस परिपक्व उम्र में मैं दिवाकर को शैलेश के समान प्रेम और समर्पण दे पाऊंगी, और क्या दिवाकर भी मुझे निकिता के समान प्रेम कर पाएगा?

फिर दोनों बच्चों में सामंजस्य को लेकर भी मेरे मनोमष्तिष्क में अनेक संदेह उठ रहे थे। क्या मैं नक्श को परी के समान प्यार दे पाऊंगी? एवं सर्वोपरि क्या दिवाकर मेरी और शैलेश की बेटी को अपनी संतान का दर्जा और लाड़ दुलार दे पाएगा? और यदि दोनों बच्चे एक-दूसरे के माता-पिता से सहज सरल ढंग से नहीं घुलमिल पाए तो जिंदगी बेहतर होने के बजाय और बदतर हो जाएगी। नहीं, नहीं, यदि नए रिश्ते ने जिंदगी की गुत्थियों को सुलझाने के बदले और उलझा दिया तो जिंदगी और दुर्वह और पेचीदा हो जाएगी। नये रिश्तों के साथ नए समीकरण बैठाना कोई आसान काम नहीं। यह सब सोचकर मैं अत्यंत परेशान हो उठी थी। और इन प्रश्नों की पृष्ठभूमि में मैंने एक अंतिम निर्णायक फैसले से अपने विचारों के उद्दाम प्रवाह को रोका, नहीं... नहीं... दिवाकर के साथ दूसरे विवाह के बारे में सोचना तक बेवकूफी होगी। नहीं, मांजी को अपना आखिरी निर्णय सुनाना ही श्रेयस्कर होगा। मुझे उन्हें साफ स्पष्ट शब्दों में कहना ही होगा, कि मेरी किसी से भी दूसरा विवाह करने की मंशा नहीं है।

एक सफल ब्यूटीशियन के तौर पर मेरा काम बहुत अच्छा चल रहा था और इस काम से मेरी मासिक आय गुजारे से कहीं अधिक हो जाती थी। इसलिये मुझे किसी की आर्थिक मदद की जरुरत नहीं थी। फिर मैं मन ही मन शैलेश की यादों से इतनी गहराई से जुड़ी हुई थी कि मुझे लगता कि वह अभी भी सोते जागते, उठते-बैठते मेरे साथ था। शैलेश के जाने के बाद अकेले जीवन की हर कठिन परिस्थिति का स्वविवेक से सफलतापूर्वक सामना करते करते मैं अपने आप में एक अनोखी शक्ति का अनुभव करने लगी थी।

अपने परिचय क्षेत्र में मैं बेहद लोकप्रिय थी। लोग, खासकर बेसहारा महिलाऐं मुझसे बहुधा अपना दुखड़ा बता मेरे कंधों पर रोकर अपना कलेजा हल्का कर लिया करती थीं और मुझसे अपनी समस्याओं का हल मांगती थीं।

कि उन्हीं दिनों एक दिन फिर मांजी ने मुझे और दिवाकर को एक-दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया।

उस दिन होली का त्योंहार था। दिवाकर ने थोड़ी भांग पी ली थी। भांग के नशे में वह मुझ पर पर रंग लगाने की जिद कर रहा था और मांजी उसे बढ़ावा दे रही थीं - ‘‘दिवाकर... लगा दे रंग जया पर, छोड़ना मत उसे, सालों हो गए हैं उसे होली खेले, आज तो रंग ही डाल उसे रंगों में।’’

कि यह सुनकर मैने जोर से रोते हुए अपना मुंह हाथों से ढ़ांप अपने कमरे में अपने आपको बंद कर लिया और दिवाकर और मांजी के लाख कहने पर भी मैंने उसके जाने के बाद ही अपना दरवाजा खोला।

मेरी सहनशक्ति शून्य हो गई थी और कमरे से निकलते ही मैं अदम्य क्रोध से मांजी पर फट पड़ी, ‘‘मांजी, यह क्या बचपना है? दिवाकर नशे में था और आप उसे रोकने के स्थान पर उसे मुझे रंगने के लिये बढ़ावा दे रही थीं। मांजी, मैंने आपसे कई बार कह दिया कि मैं जैसी हूं संतुष्ट हूं सुखी हूं। मुझे किसी पुरुष के सहारे की जरुरत नहीं अब। यदि आपने यह सब तत्क्षण बंद नहीं किया तो कसम से, मैं यह आपका घर छोड़कर कहीं और रहने चली जाऊंगी। आप मुझे इस घर से विदा करना चाहतीं हैं, मेरे साथ नहीं रहना चाहतीं तो ठीक है, जैसी आपकी मर्जी।” मांजी मुझे देखती रह गई थी।

मुझे अपने निर्णय पर फख्र था। मैं सोच रही थी, आज के बदले हुए युग में नारी अब अबला नहीं रही । मात्र किसी भी पुरुष की अनुगामिनी बन जीवन जीना उसका ध्येय नहीं। वह शक्ति है, अपनी हिम्मत, सूझबूझ और सशक्त इरादों से अकेले बिना किसी सहारे के जिंदगी की मुहिम अकेले अपने दम पर बखूबी लड़ सकती है।

इस सोच ने मुझमें अपूर्व शक्ति का संचार किया था। मैं तैयार थी जिंदगी की जंग एकाकी अपने दम पर लड़ने के लिए।

मैंने अपने आँसू पोंछे और उठ कर मैं टेबल लैम्प जला कर अपनी टेबल पर बैठ गई। अंतस की पीढ़ा लेखनी की राह बह निकली थी और मैंने मन ही मन सोचा था, मैं और अब कमजोर नहीं पड़ूँगी। अबसे साहित्य साधना ही मेरी हमराह बनेगी, और मेरी लेखनी दौड़ने लगी थी।