अंधेरे से उजाले तक

“अम्मा, बड़ी ज़ोर की ठंड लग रही है, सारी गुदड़ी तो तूने अपनी तरफ खींच ली है, नींद नहीं आरही,” भागो ने अपनी माँ से कहा।

“ले, ठीक से ओढ़, और सो जा, सुबह तड़के ही फैक्ट्री जाना है, सो जा बिट्टो, नहीं तो नींद उचट जावेगी,” कम्मो ने अपनी बेटी भागो को सीने से चिपटाते हुए कहा।

एकाध मिनिट बाद भागो फिर बोल पड़ी थी, “अम्मा, कमर और हाथ पिरा रहे हैं, थोड़ा तेल मल दे री अम्मा।”

“हाँ री लाड़ो दिन दिन भर बैठ कर अपने छोटे छोटे हाथों से सींकों पर मसाला लपेटती है, तभी दुखते हैं कमर और हाथ। चल मैं तेरे तेल मल देती हूँ, अभी चैन पड़ जावेगा।”

कम्मो उठ कर तेल की डिबिया ले भागो के तेल चुपड़ने लगी थी।

कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। कम्मो पुरानी, पतली, तार तार हो आई गुदड़ी को अपनी बेटी भागो के साथ ओढ़े सो रही थी, लेकिन हाड़ मांस भेदती हुई ठंड भीतर तक भिदी जा रही थी, और भीषण शीत से वो दोनों की दोनों ठिठुर रही थीं। भागो को अपने से चिपटाए एक दूसरे से की देह से थोड़ी सी गर्माहट लेने की बेमतलब कोशिश करते हुए कम्मो हनुमान चालिसा का जप करते हुए होठों ही होठों में बुदबुदा उठी, “हे हनुमानजी, आप तो अंतर्यामी हो, तनिक इस जाड़े का प्रकोप कम करो, भगवान,” लेकिन जाड़ा था कि चैन नहीं लेने दे रहा था। लाचार कम्मो ने उठ कर झुग्गी के कोने में जमा किए गए सूखे पत्तों में आग लगा दी, और फिर वह भागो और उसके बापू सभी अलाव के चारों तरफ बैठ कर आग सेकने लगे। आग की तपन से ठिठुरन कम हुई और हड्डियों तक भिदी शीत धीरे धीरे सुकून भरी गर्माहट में बदल गई. कुछ ही देर में आग बुझा तीनों प्राणी अपनी अपनी खटियाओं में दुबक गए।

तड़के पाँच बजे मस्जिद की अजान के साथ कम्मो की आँख खुली। उसने चूल्हे में लकड़ियाँ जलाईं, लेकिन सारी की सारी लकड़ियाँ सीली थीं। सो पूरी झुग्गी में धुआँ फैल गया और दमघोंटूँ धूँए के गुबार में कम्मो और उसके बापू का दमा फिर से उखड़ आया। दोनों खाँसते खाँसते बेदम हो उठे थे।

किसी तरह भागो और उसके बापू को झुग्गी के बाहर खुली हवा में भेज कम्मो ने सूखे गोबर के कंडे जला कर आंच जलायी और चाय बनाई। भागो और पति की खांसी कम्मो के कलेजे पर चोट करती। लेकिन पैसों की कमी से दोनों का इलाज अच्छे डाक्टर से नहीं करवा पा रही थी।

धूँए से गँधाती चाय के घूंट सुड़क और एक एक टोस्ट कुतर भागो और कम्मो फैक्ट्री की तरफ तेज कदमों से बढ़े जारहे थे।

“जल्दी चल री अम्मा, नांय तो मास्टरजी फिर आज डाँटेंगे। कल भी देर हो गई थी।”

“हाँ री बिट्टो, चल चल जल्दी चल।” सुबह सबेरे की बर्फीली हवा पूरे बदन पर जैसे थपेड़े मार रही थी, और सर्द हवा में भागो फिर ज़ोर ज़ोर से खाँसने लगी थी, और दोनों फैक्ट्री पहुँच गई थीं।

फैक्ट्री क्या थी, लम्बी टीन टप्पर की छत वाली अंधेरी सीलन भरी चाल थी, जिसमें बल्ब की मद्धिम रोशनी में करीब सत्तर बच्चे और औरतें लंबी लंबी नीची मेजों पर अगरबत्ती की सीकों पर खुशबूदार मसाला लपेटने का काम सुबह सात बजे से रात के सात बजे तक करते रहते।

चाल में मसाले की गंध से भागो फिर खाँसने लगी थी, और कम्मो भाग कर चाल के सामने वाली चाय की दुकान से अदरक गुड वाली चाय ले आई खांसी के दौरे से हलकान होती भागो के लिए। भागो को खाँसते देख उसकी बगल में बैठी उसकी सहेली रधिया बोल पड़ी, “री चाची, भागो को इत्ती खांसी हो रही है, तनिक डाक्टर को क्यूँ न दिखाती तुम उसे? कल को खांसी बिगड़ कर टीबी में बदल गई तो क्या होगा?”

“अरे चुप कर छोरी, शुभ शुभ बोल, दिखाऊँगी री इसे डाक्टर को, आज ही ले कर जाती हूँ इसे बस्ती वाले डाक्टर के पास, सच सच बताऊँ तुझे, डाक्टर की फीस का जुगाड़ न हो पा रहा। दो बखत की रोटी में ही सारा पैसा खर्च हो जावे है, एक पाई तक ना बचे। लेकिन तू ठीक कह रही है छोरी, दवाई भी बहुत जरूरी है। कल मास्टरजी से ऐडवांस मांगूँगी, फिर उसे लेजाऊंगी।”

कम्मो और भागो ने अगरबत्तियों का मसाला सींकों पर लपेटने का काम शुरू कर दिया। कि तभी भागो की नजर फैक्ट्री के मालिक मास्टरजी की बेटियों पर पड़ी, जो कंधों पर बस्ता टाँगे और हाथ में पानी की बोतल थामे बड़ी शान से स्कूल जा रही थीं। उन्हें देख कर भागो के कलेजे में एक हूक सी उठी और उसने अपनी अम्मा से कहा, “ओरी अम्मा, कित्ती किस्मत वाली हैं न मास्टरजी की छोरियाँ, स्कूल जा रही हैं बस्ता थामे। एक हम हैं हमारी किस्मत में तो सिर्फ बेगार ही लिखी है।”

“चुप कर लाड़ो, मास्टरजी ने सुन लिया तो गजब हो जावेगा। अपना अपना नसीब है। हम ठहरे दरिद्दर, पास में ना एक फूटी कौड़ी। नसीब के खाने में तो निरा अंधेरा लिखवा कर लाये हैं ऊपर वाले के दर से हम, किस दम पर तुझे स्कूल भेजें? हमारी क्या औकात तुझे पढ़ाने की?”

“अरे औकात क्यू नहीं है, भागो भी स्कूल में पढ़ सकती है, तुम्हारे मुकद्दर का अंधेरा भी उजाले में बदल सकता है, तुम स्कूल तो भेजो उसे। एक भी पैसा नहीं लगेगा पढ़ाई का। तुम से कहते कहते मैं तो थक गई, लेकिन तुम्हारे कान पर जूं रेंगे तब न। चलो, शाम को घर लौटते वक़्त तुम दोनों माँ बेटी मेरे घर होती जाना, तनिक बात करनी है। और मैं सिर्फ भागो की बात नहीं कर रही, तुम जितने बच्चे यहाँ काम कर रहे हो, तुम सब मेरे स्कूल आकर पढ़ सकते हो। तुम सब अपने अपने माता पिता से कहो, तुम्हारा स्कूल में दाखिला करवाने के लिए। मैं तुम्हें भरोसा दिलाती हूँ, तुम्हारा एक पैसा खर्च नहीं होगा स्कूल में।” पास के सरकारी स्कूल की शिक्षिका ऋचाजी जो किसी काम से फैक्ट्री आई थीं, बोल पड़ी।

“अच्छा टीचरजी, शाम को मैं ही अम्मा को आपके यहाँ हाथ पकड़ कर खींच लाऊँगी,” स्कूल जाने की अनपेक्षित संभावना से खुशी से चहकते हुए भागो ने उनसे कहा।

ऋचाजी की बातें सुन कर वहाँ काम कर रहे सभी बच्चों में सुगबुगाहट शुरू हो गई, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं। शाम को फैक्ट्री का काम खत्म होने पर भागो ने कम्मो से कहा, “अम्मा टीचरजी के यहाँ चलते हैं।”

ऋचाजी ने दोनों को बड़े प्यार से बैठाया और उनसे बात की, “कम्मो तू भागो को स्कूल में डाल दे, तेरा एक भी पैसा नहीं लगेगा उसे पढ़ाने में। इतनी प्यारी बच्ची है, खाँसते खाँसते हलकान हो जाती है बेचारी । फैक्ट्री में अगरबत्ती के मसाले में दिन दिन भर काम कर उसे ये खांसी हो गई है। उसका फैक्ट्री में काम करना बंद करवा दे कम्मो, नहीं तो ये बीमारी बढ़ गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे। ठहर भीतर मेरा भाई आया हुआ है, शहर के अस्पताल में डाक्टर है, वो भागो के लिए दवाई लिख देगा,” और ऋचाजी ने अपने भाई से भागो के लिए दवाइयाँ लिखवा दीं।”

“बड़ी किरपा, टीचरजी, भगवान आपके बच्चों को लंबी उम्र दे, आपका जोड़ा बनाए रखे। टीचरजी, मैं भागो को स्कूल में डाल तो दूँ लेकिन फिर कमाने वाला एक हाथ कट जाएगा मेरा। रोज के सौ रुपये कमा लेती है मेरी गुणी भागो। आप जानो, भागो के बापू तो अपनी बीमारी से लाचार हैं। पूरी जवानी उन्होने इस अगरबत्ती की फैक्ट्री में खपा दी, और इसके बदले ये फेफड़ों की बीमारी उन्हें सौगात में मिली है उनको। वो तो हर दम बेदम रहते हैं इस बीमारी के ज़ोर से। फिर इस मंहगाई में खाने वाले तीन मुंह। फिर कपड़े लत्ते, दवा दारू, आप देखो अब भागो घर बैठ जाएगी टीचरजी तो दोनों बखत की रोटी का जुगाड़ करना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा।”

“अच्छा, सौ रुपये कमा लेती है तेरी ये भागो, ठीक है मैं कुछ सोचती हूँ, भैया का पर्चा दिखा कर दवाइयाँ जरूर ले आना भागो की अस्पताल से और उन्हें उसे नियम से देना। कल शाम फिर से आना तू मेरे पास।”

अगले दिन ऋचाजी के घर जाने पर उन्होंने ने कम्मो से कहा, “कम्मो, मैंने तेरे लिए कुछ सोचा है, तू मेरे स्कूल में चपरासिन का काम करले। और स्कूल के बाद मेरे घर में सफाई, बर्तन और खाना बनाने का काम कर ले। इससे तुझे करीब सात आठ हजार रुपये मिल जाएँगे। यह सुन कर कम्मो की बाँछें खिल गईं। “इत्ते रुपये मिल जाएँगे। ऊपर से भागो भी सौ रुपये कमा लेगी। आपकी किरपा रही तो आराम से गुजर बसर हो जाएगी।”

“नहीं, भागो काम नहीं करेगी। वो छोटी बच्ची है, वो बस पढ़ेगी। और इतना समझ ले कम्मो, अगर तूने भागो को फिर से फैक्ट्री में डाला तो मैं तुझे नौकरी से निकाल दूँगी। छोटे बच्चों से काम करवाना गैरकानूनी है, जुर्म है।”

“ओ नाजी टीचरजी, इतना ज़ुलम मत करना। आपके सिवाय और किसीकी चौखट का आसरा नहीं है हमें। तो टीचरजी कब से आऊँ मैं काम पर?”

“तू तो परसों एक तारीख से आजा, और भागो को कल से ही स्कूल भेज देना। मैं उसका दाखिला कल ही स्कूल में करा दूँगी।”

कम्मो ऋचाजी को लाख लाख आशीशें देती हुई घर चली गई।

एक तारीख से कम्मो ऋचाजी के घर और स्कूल में काम करने लगी थी। उसी दिन से भागो को स्कूल भी जाना था। सुबह सात बजे तक नहा धो कर भागो अपनी मैली कुचैली फ़्राक पहन कर स्कूल जाने को तैयार हो गई, और समय पर स्कूल पहुँच गई थी।

स्कूल में अपनी क्लास में आँखें फाड़े वह सभी आते जाते शिक्षकों को देखती रही। उनका पढाना उसे कोरी गिटपिट लगता। शिक्षक बोर्ड पर जो कुछ लिखते, उसे काला अक्षर भैंस बराबर लगा करता। सारा दिन क्लास में बैठे बैठे उसे बेहद ऊब हो आती।

एक दिन उसने अपनी परेशानी ऋचाजी को बताई। उन्होने उसे घर पर अक्षरज्ञान कराना शुरू कर दिया। उन्होंने भागो से कहा, “मैं जो सिखाऊँ उसे मन लगा कर सीख। फिर तुझे पढ़ाई करना बहुत अच्छा लगेगा।”

ऋचाजी उसे घंटों पढ़ातीं, लेकिन भागो को कुछ भी जल्दी से समझ न आता। पढ़ाई में उसकी प्रगति बहुत ही धीमी गति से हो रही थी। लेकिन ऋचाजी ने हार नहीं मानी। वे उसे लेकर जब तक बैठी रहती जब तक कि उसे कोई चीज अच्छी तरह से समझ नहीं आजाती। पहली साल तो वह बड़ी मुश्किल से पास भर हो पाई थी। लेकिन ऋचाजी की कड़ी मेहनत से धीरे धीरे पढ़ाई में उसका प्रदर्शन बेहतर होता गया।

वह दिन उसकी जिंदगी का यादगार दिन था, जिस दिन उसने अपनी मंजिल का पहला पड़ाव तय किया। दसवीं की बोर्ड परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी में पास हुई। उसकी दिली तमन्ना है, बीएड और एमएड कर स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनाना। ऋचाजी उसका आदर्श हैं जिन्हें देख कर उसे प्रधानाध्यापिका बनने की प्रेरणा मिली है। आगत भविष्य के सुनहरे सपने उसकी आँखों में झिलमिला रहे हैं। उसे दृढ़ विश्वास है अपने बुलंद हौसलों के दम पर वह अपना मुकाम जरूर हासिल करेगी।