और रावण जल गया

दुर्गा अपनी झुग्गी के दरवाजे पर खड़ी अपने पति घासी कबाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी उसने देखा, उसके घर बस्ती के दादा नुमा लड़के, हरिया, किसना और परमा किसी अजनबी के साथ उसके घर उसके पति को पूछते हुए आए।

“घासी को बाहर भेज दो, कुछ जरूरी काम है।”

“अभी वो घर पर नहीं हैं, जब आयें तो आना”, कहते हुए दुर्गा ने अपनी झुग्गी का दरवाजा भड़ाक से उनके मुंह पर बंद कर दिया। उसे वे गुंडे फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। वे जहां कहीं जाते, कुछ न कुछ खुराफात जरूर कर बैठते। दिन दिन भर शराब के ठेके परअड्डेबाजी करना, शराब पीना, जुआ खेलना, बात बेबात लोगों से लड़ाई मोल लेना, लोगों से पैसे ऐंठना, कौनसा ऐब था जो उनसे अछूता था। फिर राह चलती लड़कियों और औरतों पर बुरी नजर रखते थे। सो दुर्गा उनसे बात तक करना पसंद नहीं करती।

दुर्गा अपनी झुग्गी के एक कोने में पड़े कबाड़ में से अच्छा, महंगा बिकने वाला सामान छाँट कर अलग अलग रख रही थी। पीपे कनस्तर एक ढेर में, टायर एक ढेर में, रद्दी एक ढेर में, टूटी फूटी साइकिलें एक तरफ और स्कूटर, गाड़ियों के अंजर पंजर एक तरफ बीन कर रखते रखते उसकी कमर अकड़ गई थी। तनिक सुस्ताने के लिहाज से वह अपनी झुग्गी का चूँ चूँ करते दरवाजे की सांकल लगा अपनी खाट पर लेटी ही थी, कि फिर से हरिया उसका दरवाजा ज़ोर ज़ोर से पीटने लगा।

“घासी दादा, अरे ओ घासी दादा, कहाँ हो, तनिक बाहर तो आओ।”

हरिया की आवाज सुन कर दुर्गा को बहुत ज़ोर से गुस्सा आ गया, और वह चीख पड़ी,

“मरे चैन नहीं लेने देते हैं। फिर आगए अपनी मनहूस सूरत ले कर। अरे कह तो दिया वो अभी घर नहीं आए। ऐसा क्या तूफान आगया जो उनके बिना मरे जा रहे हो।”

“अरे कुछ नहीं, बहुत जरूरी काम है दुर्गा भाभी। घर आते ही उसे फ़ोरन मेरी झुग्गी पर भेज देना”, परमा ने उससे कहा।

”उन्हें तुम्हारे घर भेजेगी मेरी जूती, मेरा बस चले तो बस्ती से बाहर निकलवा दूँ। आने दो उनको, आज ही उनसे कहूँगी कि इन निठल्लों से दूर रहें। काम के न काज के, नौ मन अनाज के। मरे घुसे चले आते हैं घर में,” दुर्गा क्रोध में बड़बड़ाई। उसे अपने पति का इन लड़कों से मिलना जुलना सख्त नापसंद था।

कि तभी थोड़ी देर में घासी दुर्गा को हरिया और उस अजनबी के साथ आता दिखा। उसने दुर्गा को हिदायत दी, “दुर्गा, हम बहुत जरूरी बात कर रहे हैं, तू या सीता अंदर मत अइय्यो।”

“इन निठल्लों के साथ क्या बातें करने लग गए, दुर्गा ने मन ही मन सोचा, और कान लगा कर झुग्गी के भीतर से आवाज सुनने की कोशिश करने लगी थी। लेकिन भीतर सब बहुत मंद स्वरों में फुसफुसा कर बातें कर रहे थे। सो दुर्गा को कुछ सुनाई नहीं दिया, लेकिन मन में असंख्य संदेहों के नाग फ़न उठाने लगे। किसी ऐसे वैसे गलत काम में तो नहीं फँसा देंगे ये मुए घासी को। इन का कोई भरोसा नहीं है।

वे लोग करीब एक घंटे तक भीतर की झुग्गी में धीमे धीमे बातें करते रहे थे, और फिर चले गए। उनके जाते ही दुर्गा ने घासी से पूछा था, क्योंजी, इन अड्डेबाजों से क्या गुटरगूँ गुटरगूँ कर कर रहे इतनी देर तक? कुछ गलत पट्टी तो नहीं पढ़ा रहे थे ये?”

“अरे कुछ ना, कुछ ना, वो जो आदमी आया था न हरिया के साथ, बस्ती में नया आया है। उसे दस साइकिलें चाहिए किसी काम के लिए। देख दस साइकिलों के इत्ते रुपये दे गया, घासी ने रुपयों की मोटी सी गड्डी खुशी से झूमकर दुर्गा के सामने हवा में लहराई।”

“इत्ते सारे रुपये, बस दस साइकिलों के,” आश्चर्य से दुर्गा की आँखें चौड़ी हो गईं कि दूसरे ही पल उसने घासी से पूछा, “क्यों जी ये कितने हैं?”

“पूरे पचास हजार!”

“हाय राम, दस पुरानी साइकिलों के पचास हजार! मतलब एक साइकिल के पाँच हजार? दइया रे दइया पाँच हजार में तो नई निकोरी साइकिल आजावेगी जी। फिर वो ऐसी पुरानी साइकिलों के पाँच हजार क्यो दे रहा है जी?”

“अरे इतना मत सोच, हम कोई गलत काम थोड़े ही न कर रहे हैं। अपना कबाड़ बेच रहे हैं, बदले में वह पाँच हजार दे या दस हजार दे, हमें उससे क्या मतलब?”

नहीं जी कुछ तो गड़बड़ जरूर है कहीं। वह कंजी आँखों वाला मुझे ठीक नहीं लगा। कैसी मिचमिची निगाहों से तिरछा तिरछा मुझे घूर रहा था मुआ। देखोजी तुम ये रुपये लौटा दो, हमें नहीं चाहिए ये हराम के रुपये। नाहक किसी गलत टंटे में फंस गए तो लेने के देने पड़ जाएँगे। जग हँसाई होगी वो अलग।”

“अरे तू बड़ी डरपोक है। सच्ची कहवें हैं, लुगाइन की अकल घौटूँ में होंवे है। जा चुप कर बैठ भीतर। हाँ, किसी को सांस ना लगनी चाहिए इन रुपयों के बारे में। अपना मुंह बंद रखियों। अपना तो दलिद्दर दूर हो जावेगा इन रुपयों से। दुनिया जो करे सो करे, हमें उस से क्या? हम तो अपना कबाड़ बेच रहे हैं बस।“

शाम को दुर्गा और घासी की इकलौती बेटी सीता जब स्कूल से पढ़ कर आई, दुर्गा ने उसे उन रुपयों के बारे में बताया। सीता सरकारी स्कूल में बरहवीं की छात्रा थी। रोज नियम से स्कूल के पुस्तकालय में अखबार पढ़ा करती। टूटी फूटी जंग खाई साइकिलों के कोई पचास हजार दे रहा है, ये बात उसके गले से आसानी से नहीं उतरी। वह सोच रही थी कि ऐसा क्या कारण हो सकता है जो वो अजनबी टूटी फूटी साइकिलों के इतने रुपये दे रहा है। कि अचानक वह यूं उछल पड़ी मानो करेंट लग गया हो। वह माँ से बोली, “माँ, माँ, वो आदमी आतंकी तो नहीं? कुछ बरस पहले कई शहरों में साइकिलों पर बम रख कर धमाके करवाए गए थे। ओरी मैया, वो कंजी आँखों वाला तो पक्का आतंकी ही है, ये बड़े जालिम होवे है, इनके चंगुल में फंस गए तो जिंदा न बचेंगे।”

हांफते हुए दुर्गा और सीता दोनों घासी के पास पहुंची थीं उसे पैसे लौटाने के लिए कहने के लिए।

“बापू, बापू, ये पैसे फ़ोरन लौटा दो। हमें इन लोगों से कोई वास्ता नहीं रखना। ये लोग बहुत बुरे हो सकते हैं। अपनी साइकिलों को धमाके करने के काम में ले सकते हैं। न, न बापू, अभी जाओ और ये रकम अभी वापिस करके आओ।”

“अरे लौंडिया, पागल हुई है क्या? मैं तुझे क्या पागल दिखता हूँ जो घर आई लक्ष्मी को अपने हाथों से लौटाऊंगा। और वो आदमी हरिया के साथ आया था। हरिया मेरा पक्का यार है, मुझे कभी धोखा नहीं देगा। छोरी, तू बहुत किताबें पढे है, तभी इतनी कहानियाँ बनावे है। किताबें पढ़ पढ़ कर तेरी तो मति मारी गई है। थोड़ा चौका चूल्हे में ध्यान लगा, घर के काम काज सीख, नहीं तो सारी जिंदगी कहानियाँ बनती फिरेगी हाँ। क्या कह रही थी छोरी साइकिलों से बम धमाके करवाएँगे। किताबें पढ़ पढ़ कर छोरी पागल हो गई है,” हँसते हुए घासी ने कहा।

दुर्गा ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी लेकिन बेटी की बातों का मन्तव्य समझ गई। वह घासी को इस गंभीर प्रपंच में हाथ डालते नहीं देख सकती थी। सो उसने एक कोने में रखे हुए बक्से में से रुपये निकालने की कोशिश करते हुए घासी से कहा था ““तुम ऐसे न मानोगे, मैं ही ये रुपये उस कलमुंहे के मुंह पर मार कर आऊँगी। अरे जान है तो जहान है। इन बुरे लोगों से दूर ही रहने में भलाई है। नहीं तो खुद तो फँसोगे, साथ ही हमारी जिंदगी भी नरक कर दोगे।”

दुर्गा को यूं जबर्दस्ती रुपये लेते हुए देख कर घासी ने अदम्य आवेश और गुस्से में आकर उसे एक थप्पड़ मारा “बदजात, बड़ी चौधराइन बनी फिरती है, हर बात में ये माँ बेटी टांग अड़ाती हैं। अरे औरतों को मर्दों के बीच की बातों मे बोलना सोभा नहीं देता है। लाख बार ससुरी से कहा है अपने काम से काम रखा कर लेकिन इसकी अकल में ये बात घुसती ही नहीं है।”

घासी के हाथ से चांटा खा कर दुर्गा गिर पड़ी। घासी ने उसपर ताबड़तोड़ लात घूसों से और वार किया था। वह अपने होश खो बैठी।

माँ को यूं बेहोश होते देख कर सीता ने उस पर पानी के छीटें डाले, लेकिन उसे होश न आया। पति पर उस अजनबी के रूप में आगत विपदा के सदमे से वह अर्धचेतनावस्था में अपने मानस चक्षुओं से देख रही थी, वह कंजी आँखों वाला इंसान रावण का रूप धारण कर अट्टहास करते हुए उसकी ओर बढ़ रहा था और उसके खौफ से वह चिल्लाई, ओ री बिट्टी, बचा ले री मुनिया बापू को इस रावण के चंगुल से नहीं तो सर्वनाश कर देगा ये मेरी सुंदर सी गृहस्थी का।

“हाँ माँ पहले होश में तो आओ, फिर इन लोगों का निबटारा भी करते हैं।”

बहुत गंभीरता से सोच समझ कर सीता अपने स्कूल की प्रधानाध्यापिका से मिली और उन्हे उसने पूरी बात बताई। प्रधानाध्यापिका ने इस बात की सूचना शहर के वरिष्ठ पुलिस अफसर को दी। पुलिस अफसर ने हरिया और उस अजनबी को पकड़ शहर में कई जगहों पर साइकिल बमों द्वारा धमाके करने की साजिश का भंडाफोड़ कर दिया और दुर्गा और सीता को उनके साहसिक कदम के लिए शाबासी दी।

दशहरा का दिन था। एक ओर बुराई के प्रतीक रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले धू धू जल रहे थे, दूसरी ओर हरिया और उस अजनबी समेत पाँच छै अन्य लोग हथकड़ी बंधे हाथों से जेल ले जाए जा रहे थे। एक बार फिर बुराई के प्रतीक रावण का नाश हुआ और अच्छाई के हाथ विजयश्री लगी।