बारह बरस की भोली पर बेहद समझदार गुनिया आज बेहद उदास थी। वह गांव के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में अध्ययनरत थी। कल से ही उसकी वार्षिक परीक्षा आरम्भ होने वाली थी, लेकिन उसके मां बापू को उसकी पढ़ाई की तनिक भी फिक्र न थी। वे तो बस उसके विवाह की जुगाड़ में व्यस्त रहते। अभी कल ही तो उसने अपने बापू से कहा था, ‘‘बापू, मुझे अभी ब्याह नहीं करना है। मुझे सरपंचजी की बेटी की तरह आगे पढ़ाई करनी है। पढ़ाई करके मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं। खूब पढ़ लिखकर आपका नाम रोशन करना चाहती हूं।’’
लेकिन उसके बापू ने उसकी एक न सुनी, और उसे कड़ी जुबान में धमका कर चुप करा दिया ‘‘अरी ओ गुनिया, पोथी पढ़ पढ़ बहुत पर निकल आए लगता है री तेरे। अपनी और सरपंचजी की बेटी की क्या बराबरी? वो ठहरे ऊंचे कुल के रईस जमींदार राजा लोग। जो चाहे करें। और हम ठहरे गरीब गुरबा। तेरी शादी कर अपनी जिम्मेदारी से निबटें तो चैन पडे़। और एक शब्द भी बोला तो कहे देता हूं, अच्छा नहीं होगा। मुंह बंद रखियो अपना जब अर्जुन और उसके मां बाप तुझे देखने आएं कल।’’
‘‘कल से मेरी परीक्षा है बापू, उन्हें कम से कम परीक्षा के बाद तो बुलाओ। मेरी पढाई में बहुत हर्जा होगा। बापू पढ़ाई करने में क्या दोष है? हमारी टीचरजी कहती हैं पढ़ाई से इंसान वास्तव में इंसान बन जाता है। अकल, शऊर, सलीका आ जाता है उसे हर चीज का। और आप लोग मुझसे ऐसा बर्ताव करते हो जैसे मैं कोई गलत काम कर रही होऊं।’’
‘‘बस, बस ज्यादा जुबान न लड़ा छोरी, चुप कर... ये क्या पढ़ाई-पढ़ाई की रट लगा रखी है तूने... चुपचाप छोरे वालों के सामने नजरें नीची कर और मुंह बंद कर बैठियो... एक शब्द भी उल्टा सीधा बोला तो वहीं सबके सामने चीर कर जिंदा गाड़ दूंगा जमीन में तुझे। चल भीतर जा,’’ आंखें तरेर परसू ने उससे सख्ती से कहा।
बापू की डांट खा, बरबस उमड़ती रुलाई को गले में घोंटने का असफल प्रयास करते हुए गुनिया भीतर चली गई। कल उसकी हिंदी की परीक्षा थी। उसने किताब अपने सामने खोल ली लेकिन अन्तर्मन में विचारों का भंयकर बवंडर उठ रहा था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि जिंदगी के इस मोड़ पर वह क्या करे? आंखों में बह आए आंसुओं से किताब के सारे अक्षर धुंधले हो आए। घोर मानसिक उद्विग्नता से मुक्ति पाने के लिए गुनिया उस वक्त तो आंखें मूंद सो गई, यह सोचकर कि देर रात जग कर पढ़ाई करेगी।
रात का पहला पहर खत्म होने वाला था। घुप्प अंधेरे में टटोल गुनिया ने लालटेन जलाई, और लालटेन की रोशनी में हिंदी के पाठ दोहराने लगी, लेकिन उसके अंतःस्थल में तो भीषण उथल पुथल मची हुई थी। एक बार पाठों का दोहरान कर उसने किताबें बंद कर दी। परीक्षा की तैयारी तो उसने बहुत पहले से कर रखी थी। सो उसकी तो रत्ती भर परवाह न थी उसे। लेकिन यह शादी का फंदा वह कैसे काटे, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था।
परीक्षा देकर घर लौटकर गुनिया अपनी सोच में गुम अपनी झोंपड़ी के पिछवाड़े कंडे थापने चली गई कि तभी उसकी मां उसे ढूंढते ढूंढते वहां आ गई, ‘‘गुनिया, अरी गुनिया, यही बखत मिला था तुझे उपले थापने का। नयी निकोरी घाघरा लूगड़ी तूने गोबर में सान ली है। खूब जानूं हूं ये क्या स्वांग रचाए बैठी है तू। चल हाथ मुंह धो और भीतर चल। छोरे वाले कब से आकर तेरी राह देख रहे हैं।”
‘‘आती हूं मां, तुम भीतर चलो, अभी मुंह हाथ धोकर आती हूं।’’
लेकिन मुंह हाथ धोने के बदले गुनिया ने अपना गोबर का हाथ हलके से अपने चेहरे पर फिरा लिया और उसके गोरे चिट्टे चांद से दमकते चेहरे पर जैसे काली घटाएं छा गईं, लेकिन बदलियों के अंधेरे से चांद का उजास कभी छिपाए छिपा है? अर्जुन और उसके मां बापू को इस सबके बावजूद गुनिया भा गई। उसका खिलती कली मानिन्द रंगरूप उसके लाख छिपाए न छिपा था। गुनिया गुदड़ी में छिपा लाल थी। आठवीं तक पढ़ी लिखी थी। फिर अर्जुन स्वयं दसवीं में अध्ययरनत था। कुशाग्र बुद्धि का पढ़ाई में अच्छा छात्र था। उसकी जिद थी कि वह पढ़ी लिखी लड़की से गठजोड़ करेगा। इस रिश्ते में बस एक ही कमी थी कि लक्ष्मी मैया की कृपा न थी घर पर। दरिद्रता का चिरवास था वहां। लेकिन गुनिया का जगमग करता रूप रंग, शील देख अर्जुन और उसके माता पिता उस पर रीझ गए और उन्होंने वहीं के वहीं शादी के लिए हां कर दी। उनकी हां सुनकर गुनिया के बापू ने अर्जुन का तिलक कर उसे गोला बताशे और एक सौ एक रुपए देकर अर्जुन का रोका कर दिया। अर्जुन के माता पिता ने गुनिया की गोद में गोला बताशे, लड्डू रखकर शगुन कर बात पक्की कर दी और फिर गुनिया की बलाएं उतारते हुए उसे ढेरों आसीस दे अर्जुन और उसके माता पिता वहां से विदा हुए।
लेकिन यूं शादी की बात पक्की होने पर गुनिया क्षुब्ध हो उठी। वह अभी महज 12 वर्ष की थी लेकिन बेहद समझदार, सुलझी हुई अपनी उम्र से कहीं बहुत अधिक परिपक्व थी। शुरू से पढ़ाई में बेहद तेज थी। हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आती। उसके स्कूल की प्रधानाध्यापिका वंदनाजी उससे बेहद स्नेह करतीं और कदम कदम पर उसे आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करतीं। उन्हीं के मार्गनिर्देशन में गुनिया आठवीं कक्षा में आ पहुंची थी। वंदना जी ने अपने सतत प्रोत्साहन से उसके अन्तर्मन में शिक्षित होने का जुनून भर दिया था। वह गाहे बगाहे गुनिया के माता पिता से भी बातें करती रहती और उन्हें गुनिया की शिक्षा जारी रखने के लिए समझाती रहती थीं।
उनकी बिरादरी में इक्का दुक्का छोड़कर सभी लड़कियों का ब्याह दस ग्यारह बरस की होते होते कर दिया जाता था। वंदनाजी के समझाने पर उसकी शादी बारह साल की उम्र तक टलती आई थी लेकिन बिरादरी के दबाव में गुनिया के माता पिता अब उसे और आगे पढ़ाने के लिए राजी न थे, और उसके विवाह की बात जोर शोर से चलाने लगे थे। पिछले सप्ताह गुनिया के कहने पर वंदनाजी उसके माता पिता को उसकी पढ़ाई चालू रखने के लिए समझाने के लिए उसके घर आई थीं, लेकिन इस बार उसके पिता ने उनसे साफ साफ कह दिया था, ‘‘टीचरजी, इत्ते दिन हमने आपकी बात मानी, आपका लिहाज करते हुए वो बारह बरस की हो गई। कुनबे की सारी छोरियां अपने अपने घर की हो गईं। अपना घर बार संभाल रही हैं। बस ये गुनिया ही कुंवारी बैठी है। हम अब और आपकी बात का मान न रख पाएंगे। हमें माफ करो टीचरजी। इन सावों में गुनिया की शादी होकर रहेगी। यह हमारा अटल फैसला है।’’
विवश वंदनाजी वहां से लौट आईं थीं।
गुनिया का ब्याह एक माह बाद पड़ने वाली आखा तीज के अबूझ सावे में होना तय हुआ। वक्त के साथ ब्याह की तिथि नजदीक आती जा रही थी। गुनिया के हाथ पैर फूलने लगे। उसे अपने विवाह को टालने की कोई जुगत सूझ नहीं रही थी। उस दिन रविवार था। गुनिया अपना विवाह किसी भी तरह रोकने के लिए सलाह करने वंदनाजी के घर पहुंच गई। बहुत सोचने विचारने पर भी उन्हें कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था।
अर्जुन गुनिया के ही स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ता था। अर्जुन से बात कर समस्या का कोई तोड़ मिले, यह सोचकर वंदनाजी ने उसे भी अपने घर बुलवा भेजा था और तीनों ने इस मुद्दे पर गंभीरतापूर्वक सलाह की।
इस बार अर्जुन ने टीचरजी के यहां जो गुनिया को देखा तो देखता ही रह गया था। निर्दोष गठन का मोहक, मासूम, अल्हड़ चेहरा और उस पर आगे पढ़ाई जारी रखने के दृढ़ निष्चय से भरपूर बोलती हुईं बड़ी बड़ी रसभीनी आंखें। अर्जुन विश्वास नहीं कर पा रहा था कि गुनिया जैसी सुन्दर समझदार लड़की उसके हाथ की लकीरों में छिपी हुई है। उसे देखकर उसके ह्दय के तार एक अबूझ रस पगी अनुभूति से झंकृत हो उठे। धीरे-धीरे उससे बातें कर उसके व्यक्तित्व का एक छिपा हुआ पहलू उसके सामने प्रकट हुआ।
गुनिया ने अर्जुन से कहा, ‘‘मैं तेरे साथ शादी के लिए ना नहीं कर रही। मां बापू ने जो सात जन्मों का रिश्ता तेरे साथ जोड़ दिया, मरते तलक निभाने को राजी हूं मैं। लेकिन मैं बस आगे पढ़ना चाहती हूं, किसी भी तरह। टीचरजी कह रही हैं कि पुलिस ही हमारी इस शादी को रोक सकती है। लेकिन अगर पुलिस मेरे घर आई तो बहुत बदनामी होगी। मां बापू बहुत दुखी होंगे। तुम ही कोई राह सुझाओ अब।’’
बारह बरस की लड़की की इतनी बड़ी बड़ी बातें सुन अर्जुन हक्का बक्का रह गया और उसने गुनिया से कहा, ‘‘तो तू मुझसे गठजोड़ करने के लिए ना नहीं कह रही?’’
उसकी आंखों में देखते हुए गुनिया ने अर्जुन से कहा, ‘‘ना, बिलकुल ना, बस मुझे पढ़ाई करनी है, यही मेरी दिली इच्छा है बस।’’
इस पर वंदनाजी ने उन दोनों से कहा कि इस शादी को रोकने का एकमात्र उपाय इसमें पुलिस का हस्तक्षेप होगा। उसके बिना यह शादी किसी भी सूरत में नहीं टल सकती। टीचरजी ने अपनी योजना उन दोनों बच्चों को बताई।
उन दोनों के विवाह में मात्र तीन दिन बचे थे। सोची गई योजना के मुताबिक वंदनाजी सादे कपड़ों में गांव के थानेदार के साथ देर रात गुनिया के घर पहुंची जहां थानेदार ने उसके पिता से कहा, ‘‘तुम गुनिया की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ किसी हालत में नहीं कर सकते। वंदनाजी के कहने पर मैं अभी तुम्हें सिर्फ यह बता रहा हूं। लेकिन अगर इसके बाद भी तुमने दोनों नाबालिग बच्चों की शादी रचाने की जुर्रत की तो मैं तुम्हें गिरफ्तार कर लूंगा शादी वाले दिन।’’
थानेदार के मुंह से यह धमकी सुन गुनिया का बापू बहुत परेशान हो उठा और लाचारी में उसने थानेदार और वंदनाजी को वचन दिया कि वह यह शादी नहीं करेगा।
थानेदार और टीचरजी के रुखसत होने के बाद वह गुनिया पर बहुत बिगड़ा, ‘‘तूने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी री गुनिया। आज पहली बार तेरी वजह से पुलिस मेरी चैखट पर आई। दूर हो जा कुल कलंकिनी मेरी नजरों से। कल को सारा गांव मुझ पर हंसेगा, मुझ पर थू थू करेगा।’’
लखना अदम्य क्रोध से अपनी बेटी पर गरज ही रहा था कि तभी वहां अर्जुन और उसके माता पिता आ पहुंचे।
भावी दामाद और समधी समधन को अनअपेक्षित रूप से घर आया देखकर लखना भौंचक्का रह गया और अर्जुन ने उससे कहा, ‘‘पिताजी, आप गांवभर के सामने गुनिया के साथ मेरा रिश्ता पक्का कर दो। बस शादी उसके बालिग होने पर करना। अभी आप उसे पढ़ाई में पूरा ध्यान लगाने दो।’’
कि तभी लखना के समधी बोल उठे, ‘‘हां समधी जी अर्जुन ठीक कह रहा है। अट्ठारह साल से पहले छोरियों का ब्याह करना कानूनन जुर्म है। आप निष्चिंत रहो, चाहो तो गांव भर के सामने अर्जुन गुनिया का रिश्ता पक्का कर दो। हमें कोई एतराज नहीं है। बस गुनिया को जितना चाहे पढ़ने दो। पढ़ लिखकर दो-दो कुलों में उजियारा करेगी हमारी बीनणी। यह बच्चे हमारा आज ही नहीं, कल भी हैं। अगर आज की फसल बेपढ़ी लिखी हुई तो हमारा कल क्या होगा?’’
गुनिया नम आंखों से भावी पति की आंखों में अपने प्रति उमड़ते प्यार और समर्पण को देख अभिभूत हो मुस्कुरा उठी। मायूसी का अंधेरा छंट गया और उम्मीदों की नई भोर हो चुकी थी।