“हैलो मीतांशु।”
“हूं जयति, बोलो।”
“ओह मीतांशु, आज मैं इतनी खुश हूं, इतनी खुश हूं कि बता नहीं सकती। आज मैं लिटरलली सातवें आसमान में उड़ रही हूं।”
“अरे भई, वापिस आजाओ हमारी इस धरती पर, नहीं तो इस नाचीज़ का क्या बनेगा?चलो यह तो बताओ, आखिर खुशखबरी है क्या? तुम्हारी शादी तय हो गई क्या? किस बजरबट्टू की शामत आई है?”
“उफ मीतांशु, तुमभी ना, टिपिकल लोगों से कतई कम नहीं हो। जाओ, कुछ नहीं बताऊंगी तुम्हें। पूछोगे, फिर भी नहीं।”
“अरे बाबा, नाराज मत हो। मैं तो मज़ाक कर रहा था। चलो, जोक्स ऐपार्ट, बताओ, क्या बात है?”
“नहीं नहीं, फोन पर नहीं, आमने सामने ही बताऊंगी। हवेली की तरफ आ सकते हो अभी?”
“अरे मेरी इतनी अच्छी फ्रेंड मुझे बुलाए और मैं ना आऊं, यह हो ही नहीं सकता।चलो, तुम्हारी तरफ पहुंचता हूं।”
मीतांशु उसी समय अपने आफिस से जयति की कनक हवेली की ओर चल दिया।
“ओह मीतांशु, आगए तुम।”
“बोलो, क्या शेयर करना था तुम्हें मुझसे?”
“हां, अभी बताती हूं, चलो जरा रेस्त्रां का एक चक्कर लगा कर आयें, मुझे तुम्हें कुछ दिखाना है।”
जयति मीतांशु को अपनी विशाल कनक हवेली में स्वयं द्वारा चलाये जा रहे रेस्त्रां की ओर ले गई। रंग बिरंगे झाड़ फ़ानूसों के बल्बों की मद्धिम रौशनी में दीवारों पर की हुई अति सुंदर, खुशनुमा,चटख रंगों से भरपूर फ़्रेस्को पेंटिंग्स ने रेस्त्रां के सम्पूर्ण परिवेश में अद्भुत मनमोहक छटा बिखेरी हुई थी। दीवारों पर आदमक़द तैलचित्र टंगे हुए थे, जिन्होंने माहौल को अपूर्व भव्यता नवाज़ी थी। पार्श्व में मंद स्वरों में बजते बेहद मधुर संगीत ने सम्मोहक समां बांधा हुआ था। रेस्त्रां में मौज़ूद लोग इस पुरसुकून माहौल में अपने परिवारजनों के साथ लज़ीज़ व्यंजनों का लुत्फ़ उठा रहे थे।
मीतांशु और जयति पूरे रेस्त्रां का एक चक्कर लगा उसके विशाल डाइनिंग हॉल के एक कोने में लगी जयति की निजी टेबल पर जाकर बैठ गए।
“मीतांशु, आज खुली आँखों से देखा हुआ मेरा सपना पूरा हुआ। देखा तुमने, आज रेस्त्रां की एक एक टेबल भरी हुई है। उधर देखो, रिसेप्शन लाउंज में कितने लोग टेबल के लिए वेट कर रहे हैं। आज मेरी दिली तमन्ना पूरी हो गई।”
“कॉङ्ग्रैच्स बडी, ईश्वर तुम्हें हर कदम पर कामयाबी दे, तुम यूं ही हर कदम पर ऊंचाइयां छूती रहो।अब बताओ, आगे क्या इरादा है?”
“अब तो बस पहली और दूसरी मंजिल पर होटेल खोलने की तमन्ना है। लेकिन अभी उसमें समय है।”
“ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारे ख्वाब को उसकी मंज़िल जरूर मिलेगी। तुम तो बस पूरी मेहनत और लगन से अपने काम में जुटी रहो।”
“थैंक्स मीतांशु, थैंक्स सो मच।”
“चलो जयति, अब मैं चलता हूँ। कुछ फाइलें पेंडिंग हैं, वो निबटानी हैं। इसलिए आज जरा जल्दी में हूँ। मौका लगा तो कल फिर आऊंगा।”
“ठीक है, बाय, सीयू। टेक केयर।”
“बाय डीयरी, टेक केयर।”
मीतांशु के जाने के बाद जयति अपनी टेबल पर कुछ देर यूं ही बैठी रही, और अनायास उसकी आंखों में कब अतीत के स्याह और रंगीन साये एक के बाद एक तैरने लगे, उसे भान ना हुआ।
अपने माता पिता की इकलौती लाड़ली संतान के रूप में उसने इस विशाल तीन मंजिली कनक हवेली में अपनी आंखें खोलीं। अपने नाम के अनुरूप कनक हवेली अपनी आन बान शान में खालिस सोने से कमतर न थी। यह शानदार हवेली उसके पुरखों ने बनाई थी, जो कि जौहरी थे। उसके परदादा ने रत्नों, आभूषणों के व्यापार में बेशुमार दौलत कमाई, और इस आलीशान हवेली को अपने इकलौते बेटे, जयति के दादाजी के लिए बनवाई थी। उसने तो खैर इस हवेली में जन्म लिया था, लेकिन और जो कोई भी उस हवेली में कदम रखता, उसकी दीवारों पर की गई बेमिसाल फ़्रेस्को पेंटिंग्स की भव्य खूबसूरती से चकाचौंध हो जाता। दुर्भाग्यवश कनक हवेली का वैभव बहुत समय तक कायम नहीं रह पाया, एक पीढ़ी के साथ ही चुक गया। जयति के प्रपितामह ने जहां अपने पुरुषार्थ से अथाह धन संपत्ति अर्जित की, वहीं जयति के दादाजी ने उसे अपने जीवन काल में दोनों हाथों से भरपूर उलीचा, एक पाई तक कमाने की बात तो दूर थी। उन्हें जवानी में ही शराब और जूए की लत लग गई। जब तक पिता का साया उनपर रहा, प्रपितामह ने उनपर नियंत्रण रखा, लेकिन प्रौढ़ावस्था में शिकार के दौरान पिता की असमय मृत्यु के उपरांत उसके उच्छृंखल दादाजी ने शराब और जुए की लत में सारा पैतृक धन गंवा दिया।
पिता के दुर्व्यसनों की वजह से त्रस्त सरला माँ के सतत आंसू देख बड़े हुए जयति के पिता अपने पिता से बिलकुल अलग थे। उम्र भर उन्होंने सात्विक जीवन जिया और बुरी आदतों से सदैव दूरी बनाए रखी। स्कूली पढ़ाई पूरी होते ही माँ ने उन्हें कस्बे के सबसे बड़े साहूकार के यहां मुनीमगिरी पर लगा दिया और कुछ ही वर्षों में एक संस्कारी सुशील कन्या से उनका विवाह कर दिया। छोटी सी मुंशीगिरी की मामूली सी तनख़्वाह में उनके परिवार का गुजारा बड़ी मुश्किल से होता, लेकिन सरल, चिर संतोषी जयति के पिता ने धन के अभाव में कभी उफ तक न की। विवाह के वर्ष भर बाद ही जयति ने अपनी किलकारी से कनक हवेली को गुलज़ार कर दिया।
वक़्त के साथ वह उम्र के पायदान चढ़ती गई। बापूसा और माँसा के लाड़ दुलार की ठंडी छांव में उसका बचपन और किशोरावस्था बेहद सुकून से गुजरा। पैसों की किल्लत में भी वे दोनों उसकी हर जरूरत पूरी करते। थोड़ी समझदार होते ही माता पिता की आर्थिक विपन्नता को अपने प्रयत्नों द्वारा मिटाने की हसरत उसके दिल में जगने लगी। उनका छोटा सा कस्बा राजस्थान का एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल था। उनकी कनक हवेली के आसपास कई अन्य खूबसूरत इंटीरियर वाली हवेलियां भी थीं जिन्हें वहाँ के स्थानीय बाशिंदे रेस्त्रां होटेल में तब्दील करके कस्बे में आने वाले सैलानियों के चलते बहुत अच्छी कमाई कर रहे थे। कनक हवेली उनसब में आला थी। वह अक्सर पिता से कहती, “बापूसा, जब मैं बड़ी हो जाऊंगी, हम तीनों मिलकर अपनी इस कनक हवेली में बढ़िया सा रेस्त्रां और होटेल चलाएंगे। माँ और मैं उसमें खाना बनाएंगे और फिर देखना अपना रेस्त्रां कितना चलेगा।”
“हां बेटा, ईश्वर ने चाहा तो जरूर चलाएंगे, लेकिन उसके लिए भी पढ़ाई बहुत जरूरी है। मैं कल ही अपने सेठजी के बेटों से इस बाबत बात कर रहा था। उन्होंने ही बताया, रेस्त्रां, होटेल चलाने की भी अलग से पढ़ाई होती है। पहले तुझे वो पढ़ाई करवाऊंगा, फिर हम तीनों मिलकर अपनी इस कनक हवेली में रेस्त्रां चलाएँगे। बस तू तो जी लगा कर पढ़ाई किए जा।”