6: गहराइयां

“नहीं, नहीं मीतांशु, अब कोई समस्या नहीं है, कि तभी जयति की माँ उनके साथ आकर बैठ गईं, और उन्होंने मीतांशु से पूछा, “बेटा, तुम्हारे परिवार में और कौन कौन है?”

“जी आंटीजी, मैं अपने पेरेंट्स की इकलौती संतान हूं।”

“”माँ पापा क्या करते हैं तुम्हारे?”

“जी माँ तो हाउस वाइफ़ हैं, और पापा पुलिस में ही थे। वह डीवाइऐसपी की पोस्ट से रिटायर हुए हैं।”

“शादी हो गई तुम्हारी?”

“नहीं, अभी नहीं हुई।”

“तुम्हारे पेरेंट्स शादी के लिए नहीं कहते तुमसे?”

“जी आंटीजी, माँ तो मेरे बहुत पीछे पड़ी हुई हैं, दिन का रोज़ एक फोटो भेजती हैं मुझे, लेकिन शुरू से मेरी सोच है, कि मैं अपनी पसंद की लड़की से शादी करूंगा। हाल फ़िलहाल ऐसी कोई लड़की मेरी नज़र में नहीं, जिससे मैं शादी करने की सोच सकूं। इस पुलिस की नौकरी में काम का प्रैशर इतना रहता है कि दम मारने की फुर्सत नहीं मिलती। अभी साल दो साल मैं अपनी नौकरी पर फ़ोकस करना चाहता हूं। अभी दूर दूर तक शादी मेरी सोच में नहीं।”

“अरे बेटा, हर माँ बाप के अरमान होते हैं, बच्चे शादी ब्याह कर के अच्छी तरह से सेटल हो जाएं। तुम तो इतनी बढ़िया नौकरी में सैट हो। फिर देर करने का क्या मतलब? बेटा, देर से शादी हो तो हर चीज में देर होती जाती है। शादी कर लो बेटा, बच्चों की शादी देख कर माता पिता को बेइंतिहा खुशी मिलती है। अब इस जयति को ही देख लो, शादी के लिए हामी ही नहीं भरती।”

“अरे आंटीजी, शादी का क्या है, हो ही जाएगी एक न एक दिन। पहले अपने करियर, नौकरी में तो अपना सोचा हुआ हासिल कर लें।”

“अरे बस माँ, बस भी करो, हम मिलेनियल्स के लिए शादी के अलावा भी करने सोचने के लिए बहुत कुछ है। ठीक कह रही हूं न मीतांशु?”

“जी बिलकुल ठीक कह रहीं हैं जयति आप। आंटीजी, टेंशन मत लीजिये, पहले हम पूरे कमिटमेंट के साथ अपने सपने तो पूरे कर लें, शादी के लिए तो उम्र पड़ी है।”

तभी जयति की माँ उससे बोलीं, “मीतांशु, तुम्हें अपना वायदा याद है ना, पिछली बार जब तुम यहाँ आए थे, तुमने वायदा किया था, अगली बार तुम हमारे साथ ही खाना खाओगे।”

“ठीक है आंटीजी, खा लूंगा। अभी पिछले माह ही मेरा ट्रांसफर जोधपुर से यहाँ हुआ है। मम्मा, पापा अभी तक जोधपुर में ही हैं। यहां अगले महिने तक शिफ्ट होंगे। खाली घर खाने को दौड़ता है। उनके बिना बहुत बोर होता हूं अकेले अकेले।”

“तो बेटा, यहां आजाया करो न जब भी जी चाहे। हमें बहुत अच्छा लगेगा।”

“जी आंटीजी। जरूर।”

“मीतांशु, आप क्या लेना पसंद करेंगे? यहाँ का ट्रेडीशनल फूड या फिर और कुछ”?

“ओह जयति, मैं ट्रेडीशनल फूड ही लेना चाहूंगा। मुझे दाल, बाटी, चूरमा बेहद पसंद है।”

“ठीक है, आज मैं आपके लिए हमारे यहां की विशेष खासियत, राजस्थान री थाली मंगाती हूं। उसमें कैर सांगरी की सब्जी, गट्टे की सब्जी, आलू प्याज़ की सब्जी, कढ़ी, बाटी, चूरमा, पंचरंगी दाल, बाजरे की खिचड़ी, लहसुन की चटनी के साथ और भी बहुत कुछ होगा।”

तीनों ने साथ ही खाना खाया।

समान मानसिकता के चलते उस दिन जयति और मीतांशु की आगत गहरी मित्रता की नींव पड़ी थी। उस दिन के बाद से माँ बेटी के अपनत्व भरे व्यवहार से मीतांशु आए दिन कनक हवेली खिंचा चला आता, और उनके साथ दो तीन घंटे गुजार कर ही जाता। वक़्त के साथ वह जयति और उसकी माँ का परम शुभचिंतक बन गया।

वक़्त गुजरने के साथ साथ दोनों के परिवार भी बेहद निकट आ गए।

जयति बीते दिनों की भूलभुलैया में अटकती भटकती पुराने भूले बिसरे दिन जी ही रही थी, कि तभी जयति का फोन बजा और वह अपनी सोच की दुनिया से वापिस वर्तमान में आगई।