उधर मीतांशु जयति जैसी छुईमुई सी तन्वी को अपने दम पर अकेले रेस्त्रां जैसी भारी ज़िम्मेदारी को बखूबी संभालने की बात सुन उससे बेहद प्रभावित हुआ। एक दिन वह अपने दफ्तर से घर लौट रहा था कि रास्ते में जयति का रेस्त्रां देख उसके मन में उत्कंठा जगी, एक बार फिर से उस से मिलने की, और उसका रेस्त्रां देखने की।
सो बरबस उसने ड्राइवर से कह अपनी जीप कनक हवेली के सामने रुकवाई और वह रेस्त्रां पहूंच गया।
उस समय जयति वहां अपनी टेबल पर बैठी कुछ हिसाब किताब में व्यस्त थी कि मीतांशु को अपने सामने यूं अचानक देख चौंक गई।
“हॅलो जयति, कैसी हैं आप?”
“जी शुक्रिया, मैं बिलकुल ठीक हूं। मुझे समझ नहीं आ रहा, मैं किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूं? आपने तो इतनी जल्दी मेरी मुश्किल छूमंतर कर दी।”
“अरे, यह तो हम पुलिसवालों का फ़र्ज़ है जयति। सरकार हमें इसी की तनख़्वाह तो देती है।”
हवेली में घुसते ही मीतांशु की आंखें उसके बेमिसाल शिल्प और कलात्मक वैभव को देख कर चकाचौंध हो गईं, और वह आंखें फाड़ हर ओर देख रहा था। उसे लग रहा था मानो वह किसी दूसरी ही अलौकिक दुनिया में आ पहुंचा था।
“जयती, आपकी इस हवेली को देख कर मुझे लग रहा है, मैं किसी बेहद खूबसूरत आर्ट गैलरी में आ गया हूँ। उफ, इट्स ब्यूटी इस सिंपली अमेजिंग। यह हवेली तो शायद बहुत पुरानी होगी। अमूमन कितनी पुरानी है यह?”
“जी ऐस. पी. साहेब, करीब सवासौ डेढ़ सौ वर्ष पुरानी हवेली है यह। इसे मेरे परदादाजी ने बनवाया।”
“इसकी दीवारों और छत पर जो खूबसूरत पेंटिंग की हुई है, वह तो फ़्रेस्को पेंटिंग कहलाती है न, बहुत पढ़ा सुना है इनके बारे में।”
“जी ऐसपी साहब, आपने बिलकुल सही कहा। ये फ़्रेस्को पेंटिंग्स ही हैं।”
“मेरी समझ में नहीं आरहा, आप कह रही हैं, यह हवेली करीबन सवा सौ - डेढ़ सौ साल पुरानी है, लेकिन इसकी दीवारों पर जो पेंटिंग्स हैं, उनके रंग तो अभी तक खासे चमकीले हैं।”
“ऐसपी साहब, ये नैचुरल कलर्स का कमाल है, जैसे देशी नील, काजल, गेरू, हरा पत्थर आदि। ये फ़्रेस्को पेंटिंग दीवारों पर चूने का प्लास्टर करते वक़्त की जाती थी। पत्थरों की पिसाई कर उन्हें नैचुरल कलर्स और पेड़ पौधों की पत्तियों के साथ गीले प्लास्टर में मिला कर ये चित्रकारी की गई है। इस प्रक्रिया से रंग फैलने की बजाय अंदर तक पैठ जाते थे। इसी वजह से ये आज भी इतने चटकीले और चमकदार हैं।”
जैसे जैसे जयति मीतांशु को हवेली के भीतरी हिस्सों में ले गई, उसकी अनूठी खूबसूरती देख वह मंत्र मुग्ध हो गया ,और जयति से बोला, “जयति, बाहर से कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि आपकी यह हवेली भीतर से इतनी गहरी होगी। यह तो एक रंग बिरंगी किताब की तरह खुलती ही जा रही है। इट्ज़ सिंपली गौर्जियस।”
तभी जयति की माँ वहां आगईं। उसने अपनी माँ का परिचय मीतांशु से करवाया, “माँ, ये यहाँ के ऐसपी साहब हैं। इन्होंने ही उस विक्रम सिंह का पत्ता साफ किया।”
“ओह, ऐसपी साहब, मैं किन शब्दों में आपको धन्यवाद दूं? हम तो उस विक्रम सिंह को लेकर बहुत तंग हो गए थे, लेकिन आपने तो हमारी परेशानी का इलाज़ चुटकियों में कर दिया।”
“अरे आंटीजी, इसमें शुक्रिया की कोई बात ही नहीं, यह तो हम पुलिसवालों की ड्यूटी है। मैं तो आपकी इस हेरीटेज हवेली की आर्टिस्टिक ब्यूटी देख कर सपनों की दुनिया में पहुँच गया हूँ। कितनी खूबसूरती से आर्टिस्ट्स ने इसकी दरो दीवारों पर गुजरे जमाने की संस्कृति की झलक उकेरी है। आकृतियां तो ऐसी जीवंत हैं मानो अभी बोल पड़ेंगी।”
“जी, ऐसपी साहब,सही कह रहे हैं आप।”
“जयति, एक बात कहूं आपसे? मैं आज आपके यहां एक ऐसपी की हैसियत से नहीं बल्कि एक फ्रेंड के तौर पर आया हूँ। रोज़ आपकी इस कनक हवेली के सामने से ऑफ़िस आते जाते गुज़रता हूँ। सो मन में उत्सुकता थी आपके रेस्त्रां को देखने की। आप मुझे नाम से ही पुकारें तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।”
“जी, मीतांशु, जैसा आप कहें,” जयति ने मुस्क़ुराते हुए कहा।
“आंटीजी, मैं आपके बेटे समान हूँ। मुझे आप भी नाम ले कर पुकारें, प्लीज़।”
“ठीक है, ठीक है बेटा। जैसा तुम कहो। हां बेटा, एक बात और, मैंने तुम्हारी यह बात मान ली, अब तुम्हें भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी। आज रात का खाना तुम हमारे साथ खाओगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।”
“सॉरी, आंटीजी, आज तो मैं आपकी बात का मान नहीं रख पाऊंगा, लेकिन वायदा करता हूँ, अगली बार जब भी आपकी तरफ आऊंगा, खाना जरूर खाऊंगा। मैंने लोगों से आपके रेस्त्रां के खाने की बहुत तारीफ भी सुनी है। चलिये, अब मैं चलता हूं। घर पर मेरा एक फ्रेंड आने वाला है।
बाय जयति।”
“बाय मीतांशु।”
“चलता हूं आंटीजी,” मीतांशु ने जयति की माँ के चरणस्पर्श करते हुए उनसे विदा ली।
घर लौटते वक़्त वह पूरे समय जयति के बारे में ही सोचता रहा। उसे जयति की नाजुक सी शख्सियत एक अनूठी कशिश भरी लगी। बाहरी साजसज्जा से मुक्त उसका संजीदगी भरा मासूम सौंदर्य उसके जेहन में मानो बस गया। उस दिन उसका अपूर्व आत्मविश्वास से दप दप करता धीर गंभीर चेहरा न जाने कितनी बार उसके सामने आया, और मन में उसके बारे में और अधिक जानने की लालसा जगने लगी।
दिन यूं ही बीत रहे थे। उन दिनों मीतांशु भी बेहद मसरूफ़ चल रहा था। अपनी बेहद व्यस्त दिनचर्या के चलते इच्छा होते हुए भी वह दोबारा कनक हवेली नहीं जा पाया। कि तभी एक दिन फिर से उसके पास जयति का फोन आया।
जयति के रेस्त्रां में काम करने वाली गंगा उस दिन उसके पास रोती हुई आई। उसके सब्जी बेचने वाले पति को किसी सिपाही ने जबरन उसे कस्बे की सब्जी मंडी में उसकी जगह से हटा दिया था, और बुरी तरह से उसे हड़का कर और उससे कुछ रुपये ऐंठ कर उसे घर वापिस भेज दिया। ऐसे समय में जयति को फिर से मीतांशु की याद आई और उसने फोन पर गंगा की समस्या बताते हुए उससे गंगा की मदद करने का अनुरोध किया।
मीतांशु ने फौरन उचित कार्यवाही कर जयति को फोन किया, “जयति, गंगा से कह दीजिये, अब कोई उसके पति को तंग नहीं करेगा।”
“बहुत बहुत शुक्रिया ऐसपी साहब। मैं आपका यह एहसान कभी नहीं भूलूंगी।”
“अरे रे शुक्रिया की कोई जरूरत नहीं, यह तो आपने अच्छा किया मुझे यह बात बता कर। नहीं तो हमारा पुलिस फ़ोर्स नाहक ही कुछ गिने चुने लोगों की वजह से बदनाम हो जाता है। आप जैसे जागरूक लोगों की वजह से ही हम अपने महकमे में पैठी गंदगी साफ़ कर पाएंगे।”
चलिये, आज शाम को ही मैं आपकी तरफ आता हूं। फिर बात करते हैं।”
उस दिन शाम को आफ़िस के बाद मीतांशु कनक हवेली पहुंचा।
“और बताइये, जयति। आपका रेस्त्रां कैसा चल रहा है? वो विक्रम सिंह ने उस दिन के बाद आपको परेशान तो नहीं किया?”