विक्रम को यूं गुलदस्ते के साथ रोज़ाना शाम को जयति के रेस्त्रां आते कई दिन बीत चले।
जयति की माँ उसे लाख समझाती, “बेटा, एक बार उससे तसल्ली से बैठ कर बातें तो करले। हो सकता है वह सही शरीफ़ लड़का हो। तुझे सुखी रखे।”
“माँ, फिजूल की बातें मत करिए। मुझे वह बिलकुल अच्छा नहीं लगा।”
बौद्धिकता से भरपूर परिष्कृत रुचि वाली जयति को बड़बोला, ढीला ढाला विक्रम निहायत ही अरुचिकर लगा। अपने जीवनसाथी के व्यक्तित्व में जिस धार, जिस क्लास की उसे तमन्ना थी, उसका नामो निशान उसमें न था। अपने भावी लाइफ पार्टनर की जो छवि उसके अन्तर्मन में बसी हुई थी, वह उसके बिलकुल विपरीत था। सर्वोपरि उसकी कर्कश, तेज आवाज़ उसे बिलकुल भी नहीं सुहाती। उसे उसके व्यक्तित्व में वह ठहराव, वह मृदुलता, वह संजीदगी नज़र नहीं आई, जिसकी कि उसे अपने हमसफ़र से अपेक्षा थी।
रेस्त्रां अकेले आते आते आज विक्रम का दसवां दिन था। अगले दिन जयति के रेस्त्रां में इंस्पेक्शन था। उसीकी तैयारी में व्यस्त दस कामों में उलझी जयति रेस्त्रां में चक्करघिन्नी की तरह नाच रही थी, कि तभी विक्रम वहां फिर से एक गुलदस्ते के साथ आया और उसे जयति को थमाते हुए बोला, “ऐसी भी क्या व्यस्तता कि आपके पास हमारे लिए बिलकुल भी वक़्त नहीं है। चलिये ना, थोड़ी तसल्ली से बैठ कर बातें करते हैं।”
उस समय जयति को रेस्त्रां का एक अति आवश्यक डौक्यूमेंट नहीं मिल रहा था। वह उसे बेहद हड़बड़ी में ढूँढने में लगी हुई थी, कि ऊपर से विक्रम का यह बेवक्त का राग सुन गुस्से से फनफना उठी और बेहद तल्खी से उससे बोली, “मिस्टर विक्रम, देख नहीं रहे कितनी बिज़ी हूं? आपकी तरह मेरे पास फालतू का इतना वक़्त नहीं है, कि मैं उसे आपके साथ जाया करूँ। पचास काम हैं करने को। बेहतर होगा कि आप मुझ पर अपना प्रेशियस टाइम बर्बाद करने के बदले किसी और को ढूंढें। प्लीज़ प्लीज़, मेरी जान छोड़ दें।”
जयति के ये कडवे शब्द सीधे विक्रम के हृदय में नश्तर की तरह उतरे। वह आज इस पतली दुबली सी लड़की के हाथों बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। उसके अहं पर प्रहार हुआ था। अतीव गुस्से में उसकी ओर एक आग्नेय दृष्टि डालकर वह रेस्त्रां से निकल गया, और सीधे अपने कुछ जिगरी दोस्तों के पास जाकर उन्हें अपनी व्यथा कथा कह सुनाई।
विक्रम अपने माता पिता की इकलौती संतान था, और उनके अथाह लाड़ प्यार और बेशुमार सुख सुविधाओं ने उसे बेहद जिद्दी बना दिया था। उसके चारों ओर की दुनिया उसे अपनी पलकों पर सवार रखती। सो अपनी किसी भी मांग का ठुकराया जाना उसे बर्दाश्त न था। आज जयति की बेरुखी और कटु बोलों ने उसे बेहताशा क्रोधित कर दिया, और जब गुस्से में उसने अपने दोस्तों को अपनी दुखभरी कथा सुनाई, उन्होंने उसे सलाह दी कि जब घी सीधी उंगली से न निकले तो उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। आपसी बातचीत, सलाह मशविरा कर उसके कुछ दादानुमा मित्र एक शानदार गुलदस्ता ले कर फिर से जयति के रेस्त्रां पहुंचे, और उनमें से एक ने एक वेटर के हाथों वह गुलदस्ता जयति को भिजवाया, और एक टेबल पर बैठ कर खाते पीते शोरशराबा करने लगे। उनका शोर गुल इतना था कि अन्य टेबल्स पर बैठे लोगों को उनकी वज़ह से परेशानी होने लगी। यह सब देख जयति वहां आई और उनसे बोली, “आप लोगों की वजह से दूसरे लोगों को परेशानी हो रही है, प्लीज़, थोड़ा धीमे बातचीत करें आप लोग।”
इसपर उनमें से एक बोला, “भाभीजी, ये आवाज़ तो तभी कम होगी जब आप विक्रम की बात मान लेंगी।”
इस बात पर जयति घोर आवेश में आते हुए फौरन अपने कक्ष में गई और वहाँ से विक्रम का भेजा हुआ गुलदस्ता अपने हाथ में लेते हुए उनके सामने उसे डस्ट बिन में फेंक दिया और बेहद क्रोध में उन्हें घूरते हुए वह फिर से अपने काम में व्यस्त हो गई।
जयति की यह हिमाकत देख कर विक्रम के साथी अपार गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ गए, और उनमें से एक ने यह बोलते हुए उससे विदा ली, “भाभीजी, यह तो आप विक्रम के साथ ज्यादती कर रहीं हैं, साथ ही हमारे साथ भी। आज तो हम जाते हैं, कल फिर आएंगे। विक्रम को ना सुनने की आदत नहीं, यह बात याद रखिएगा।”
इधर विक्रम के दोस्तों की यह धौंस सुन कर जयति बेहद परेशान हो गई। इतने वर्षों में उसे ऐसी स्थिति का सामना कभी नहीं करना पड़ा, जहां वह स्वयं को कमजोर समझती। उसे विक्रम की इस ज्यादती से जीतने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। रेस्त्रां में आज विक्रम के दोस्तों की इस अड्डेबाजी को देख मन बेहद सशंकित हो गया।
तभी कुछ सोच कर वह तनिक हिचकते झिझकते अपने कस्बे के पास के शहर के ऐसपी के कार्यालय पहुंच गई, कि शायद उसे वहां अपनी समस्या का समाधान मिल जाये।
वह ऐसपी के दफ्तर के रिसेप्शन लाउंज में अपने बुलाये जाने की प्रतीक्षा करने लगी, कि तभी भीतर से उसका बुलावा आ गया।
तनिक आशंकित हृदय से वह उनके कक्ष में घुसी। सौम्य, सुदर्शन, मृदुल शख्सियत के स्वामी ऐसपी मीतांशु राय का व्यक्तित्व एक अनूठी ऊष्मा से लबरेज था, जिसकी वजह से जयति को उनसे पहली बार मिल कर भी ऐसा लगा मानो वह उन्हें बरसों से जानती थी।
जयति से विक्रम और उसके दोस्तों के बारे में सारी बातें सुन उन्होंने जयति से कहा, “जयति, आप निश्चिंत हो कर घर जाइए। मैं इन लोगों पर फौरन ऐक्शन ले रहा हूं, भरोसा रखिए, आज के बाद वे आपको कभी तंग करने की जुर्रत नहीं करेंगे,” और उनकी बातें सुन जयति निश्चिंत हो कर कनक हवेली लौट गई।
मीतांशु ने अपने स्तर पर कार्यवाही कर जयति की जिंदगी से विक्रम और उसके दोस्तों का अध्याय वहीं हमेशा के लिए समाप्त कर दिया, और जयति का सुकून वापिस लौट आया।