"ध्यान रखिएगा जी, मेरे जाने के बाद कोविड की दवाइयां समय पर लेते रहिएगा। अभी आपको इससे उबरे पूरा एक महीना भी नहीं हुआ है, और हां ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ की दवाइयां भी वक्त पर ले लिया कीजिएगा। एक दिन भी आप ब्लड प्रेशर की दवाई नहीं लेते, तो हाई हो जाता है। आपको मेरी कसम, इसमें बिल्कुल लापरवाही मत करिएगा। मेरे जाने के बाद आपका क्या होगा, मैं तो बस यही सोच सोच कर हलकान हुई जा रही हूं। मेरी तो आपकी फिक्र में आसानी से प्राण भी नहीं निकलेंगे," कहते-कहते वृंदा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े।
पत्नी की इन बातों से मैं मायूस होने लगा। मैंने असीम ममत्व से उसके दोनों हाथों को अपनी मुट्ठी में हौले से बांध उसे प्यार से झिड़का, "वृंदा इतना मत बोलो। तुम कहीं नहीं जा रही हो। मैं तुम्हें अपने से दूर जाने ही नहीं दूंगा। मैं कोविड से ठीक हो गया ना, तुम भी ठीक हो जाओगी। बस ईश्वर पर भरोसा रखो।"
"नहीं जी, मुझे लग रहा है, मैं नहीं बचूँगी। मेरा कोरोना आपसे ज्यादा कड़ा था। मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं। बहू का नौवाँ महीना लग गया है। घर में खुशियाँ आने वाली हैं। बेटे, बहू और बच्चे के साथ राजी-खुशी रहिएगा। उफ़, बहुत कमजोरी लग रही है।"
"वृंदा चुप हो जाओ। तुम्हारी बातें मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लग रहीं। आंखें बंद करो और सो जाओ," इस बार मैंने तनिक रोष से उससे कहा।
"नहीं जी मेरा चला-चली का वक्त आ गया है। मुझे प्लीज़, चुप मत कराइए। पहली बार बच्चे को गोद में लें, तो उसके हाथों में सोने के कड़े पहना दीजिएगा। मैंने पिछले साल ही बच्चे के लिए आपसे छुपा कर सोने के कड़े बनवा दिए थे। और हां बच्चा होने के बाद बहू को भी हीरौं के नए कंगन दे दीजिएगा। दोनों चीजें मेरे कमरे की अलमारी के लॉकर में रखी हैं।"
"अरे वृंदा, तुम खुद ही दे देना न अपनी बहू और बच्चे को। अब बस करो, इतना बोलोगी तो तबीयत और बिगड़ जाएगी।"
इतना बोलते बोलते उसकी सांसें चढ़ आईं, और उसने निढाल अपनी आंखें बंद कर लीं। तभी न जाने मैंने क्या सोच कर उससे पूछा, "मोलू और बहू को बुलाऊं? बात करोगी उनसे?"
"ना ना जी, बहुत रात हो गई। मैं उनसे सुबह बात करूंगी, अगर जिंदा बची तो। आज की रात मुझे आपके साथ, बस आपके साथ बितानी है," यह कहते हुए उसने मेरी तरफ करवट लेते हुए अपने एक हाथ को मेरे सीने पर रख दिया। मैंने प्यार से उसका चेहरा सहलाया और उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया।
शायद थोड़ी देर में मुझे भी झपकी आ गई, कि कुछ देर बाद वृंदा की कराहने की आवाज सुन मैं चैतन्य हुआ।
"देखिए जी, मेरी धड़कनें कितनी तेज हो गई हैं। हद की घबराहट हो रही है, दिल डूबा जा रहा है," इतना कहते-कहते वह हांफ़ने लगी, और फिर रुक रुक कर अटकते हुए बोली, "अपना ध्यान रखिएगा...मुझसे जाने अनजाने कोई गलती हुई हो तो माफ कर दीजिएगा...," यह कहते हुए मेरा हाथ कसकर थामते हुए वह बोली, "हां वायदा कीजिए, मेरे जाने के बाद आप मेरे लिए एक आंसू भी नहीं बहाएंगे। अगर आपने मेरी बात नहीं मानी तो मेरी आत्मा बहुत कष्ट पाएगी, हां, कहे देती हूं।"
कि तभी अचानक वृंदा के हाथों की पकड़ मेरे हाथों पर ढीली हो गई, और उसकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई।
मैं चीत्कार कर उठा, बिलख पड़ा... वृंदा!
तनिक देर में मुझे होश आया।
उसकी आंखें शून्य में ताक रही थीं। मैंने हौले से उसकी पलकें मूंद दीं, और एक आखिरी बार उसकी ठंडी पेशानी को चूम लिया।
मेरा मन अभी तक यह स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि अब वृंदा मुझसे हमेशा के लिए दूर चली गई है ... कि अब मैं कभी उससे बातें नहीं कर पाऊंगा... उससे हंस-बोल नहीं पाऊंगा... उस से लड़-झगड़ नहीं पाऊंगा... उसकी खनकती हुई आवाज नहीं सुन पाऊंगा। आंखों में एक मुद्दत पहले अनायास सुर्ख लाल जोड़े में सिमटी सकुचाई वृंदा का दुल्हन के वेश में सोलह सिंगार किया मोहक चेहरा कौंध उठा, जब मैंने उसे शादी में पहली बार वरमाला के लिए स्टेज पर आते देखा था।
मैंने घड़ी देखी। पौ फटने आई थी। मैंने बेटे-बहू को मां के गुज़र जाने की खबर दी।
दोपहर को वृंदा की देह पंचतत्व में विलीन हो गई।
अगले दिन तड़के मैं उसके फूल चुनने श्मशान गया। राख़ बनी उसकी कंचन काया के सामने मन कलप उठा। कि तभी अचानक तेज अंधड़ और तूफ़ान के साथ देखते देखते मूसलाधार बारिश होने लगी। हर ओर पानी के परनाले बह रहे थे, और मेरे सामने मेरी वृंदा के अस्थि अवशेष बरसते पानी की धार में इधर उधर छितर कर बहने लगे। मैं उन्हें हाथों से समेटने, सहेजने का असफल प्रयास करने लगा। बाहरी तूफ़ान के साथ साथ मन में भी ख्यालों का प्रचंड झंझावात चल रहा था कि अब मेरी वृंदा वाकई में मुझसे बहुत दूर जा चुकी है।
दोपहर को मैं अकेले अपने कमरे में बैठा उसी के ख्यालों में गुम था, कि तभी बेटा थाली लगवा कर ले आया, और मुझसे बोला, "पापा, खाना खा लीजिए।"
मैंने यंत्रवत आधा फ़ुल्का खाया और थाली परे हटा दी। बेटे ने मुझसे बहुत मिन्नतें की, लेकिन मुझसे और खाया न गया। खाने के बाद बेटे ने दवाइयों का डब्बा लाकर दिया और भीगे स्वरों में बोला, "पापा, दवाइयां खा लीजिए। मैं निर्लिप्त भाव से उसे देखते हुए उससे बोला, "हां, खा लूंगा।"
बेटे के इधर-उधर होते ही मैंने सारी दवाइयाँ फेंक दीं।
वृंदा के जाने के बाद उसके बिना मेरी जीने की इच्छा मर गई थी। उसकी मौत के बाद से मैंने अपनी एक भी दवाई ज़ुबान पर नहीं रखी। मैं अनवरत विधाता से मृत्यु की भीख मांग रहा था। हर लम्हा जेहन पर बस एक ही सोच हावी थी, 'काश मुझे मौत आ जाए।'
कि तभी बेटे के घबराए हुए स्वर कानों में पड़े, "पापा, पापा, तन्वी को लेबर पेन शुरू हो गए हैं। उसे अस्पताल ले जा रहा हूं। आप भी ताला बंद कर अस्पताल पहुंचिए।"
पिछले दिनों बिना दवाइयां खाए मुझे अपनी तबीयत बहुत खराब लग रही थी, लेकिन फिर भी मैं स्वयं को जबरन धकेलते हुए बेटे के पीछे अस्पताल पहुंच गया।
मैं और बेटा खुशखबरी का इंतज़ार करने लगे। तभी नर्स ने खबर दी, "अंकल जी,
बधाई हो, आपके घर लक्ष्मी आई है।"
मैं यूं ही उदासीन सा बैठा रहा। पोती के जन्म की खबर भी मुझे खुश न कर सकी।
थोड़ी देर बाद बहू के कमरे में नर्स ने आकर नवजात शिशु को मेरी गोद में दे दिया। बच्ची का देव प्रतिमा सा अपूर्व सुंदर, मासूम नन्हा चेहरा देख मुझे पहला ख्याल आया, कि उसके रूप में मेरी वृंदा वापस आ गई है। उसके पतले पतले, सुर्ख लाल होंठ और तोते जैसी नाक बिल्कुल मेरी वृंदा जैसी थी।
बस उसी एक लम्हे में मेरा कायाकल्प हो गया। अंतर्मन की गहराइयों से आवाज आई, "अब तुझे इसके लिए जीना है, इसका मुंह देख कर जीना है।'
मैंने असीम दुलार से उस नन्ही सी जान को अपने कलेजे से लगा लिया।
मन में निरंतर गरज़ता तूफान थम सा गया था। साथ ही बाहर भी आसमान साफ़ लग रहा था।
कुछ ही देर बाद मैं अस्पताल प्रांगण में बनी दवाइयों की दुकान से अपने लिए दवाइयां खरीद रहा था।