बसंत आ ही गया

“अम्मा कल बसंत पंचमी है। टीचरजी ने कहा है, पीले कपड़े पहन कर आना, और कुछ पीला खाने को भी लाना। एक पीली फ्रॉक दिलवा दे री अम्मा। मेरी सहेलियों ने तो कब की सुंदर-सुंदर पीली फ्रॉक खरीद भी लीं।”

“अरे छोरी, यह तेरी टीचर की रोज-रोज की चोंचलेबाजी से तो मैं परेशान हो गई। इस मरे कोरोना की वजह से पिछले दो बरस का खोली का दस हज़ार का किराया अभी तक बकाया है। आठ घरों में सुबह से शाम तक हाड़ तोड़ कर किसी तरह पुरानी उधारी की रकम तीस हज़ार से दस हज़ार तक लाई हूं। ये दस हज़ार उतरें तो चैन की सांस आए। इस साल का किराया भी चढ़ता जा रहा है।”

“हम इतने गरीब क्यों है री अम्मा? भगवान ने हमें इतना कंगाल क्यों बनाया? चलो चिंता मत करो। मैं हूं न। अच्छी तरह से पढूंगी लिखूंगी और बड़ी होकर अपनी टीचरजी की तरह मैडम बनूंगी। फिर तुम्हें काम पर भी नहीं जाने दूंगी। फिर घर में बैठकर आराम किया करना तुम।”

“अरे लाडो, हम गरीबों के नसीब में आराम कहां? फुटपाथ पर आंखें खुलीं। बचपन में ही हम पांच पांच को छोड़ मां स्वर्ग सिधार गई। भीख के पैसों से खरीदे गुब्बारे बेच बेच कर पूरे कुटुंब के लिए रोटी जुटाई। सीत, घाम बरसात में लोगों के पीछे पीछे नंगे पाव दौड़ते दौड़ते पांव में छाले पड़ जाते। कभी भरपेट रोटी खाने को ना मिली। वह तो भला हो तेरे बापू का। मुझसे बियाह कर इस खोली में ले आए। इतनी खुश थी, मैं, सड़क से खोली में आ गई। पर मुझ दुखियारी का नसीब ही खोटा हो तो कोई क्या करें?

शादी के दो बरस बाद तेरा बापू भी एक दिन अचानक बिना कुछ कहे सुने मुझे छोड़ गया। तब से अकेले दम पर घर-घर चौका बर्तन कर तुझे पाल रही थी कि यह नासपीटा कोरोना आ गया,” शन्नो ने अपनी नम हो आई आंखें पोंछते हुए अपनी बेटी से कहा।

“रो मत री अम्मा, दुखी मत हो। कल मुझे पीली फ्रॉक ना सही, खाने में ही कुछ पीला बना कर दे देना। फ्रॉक के लिए मैं टीचर जी से कोई बहाना बना दूंगी।”

“ठीक है। तो आज सब घरों से मेरी पगार मिल जावेगी। तो कल सुबह सुबह पड़ौस के पंडितजी की दुकान से बढ़िया बासमती चावल और पांच रुपयों की इलायची का पैकेट ले आऊंगी। तेरा स्कूल तो साढ़े बारह बजे लगता है न। कल तेरे स्कूल जाने से पहले ही दो तीन घर काम करके घर आजाऊंगी। फिर हल्दी डाल कर मीठे पीले चावल बना कर दे दूंगी तुझे। अब तो खुश?”

“हां अम्मा, तू मेरी बहुत अच्छी अम्मा है।”

उस दिन शाम को शन्नो अपने सभी घरों से अपनी पगार लेकर आई। खोली में लौटकर उसने ब्लाउज में खुंसे बटुए से अपनी पगार निकाली, और रुपए गिनने लगी। पूरे दस हज़ार थे। रुपये गिन कर उसने अपने बटुए को अपने टीन के पुराने सन्दूक में रख दिया।

अगली सुबह उसने बक्से से बटुआ निकाल पांच हज़ार गिन कर अपनी चौकी पर रखे ही थे, ये पांच हज़ार घर खर्च के और ये पांच हज़ार मकान मालकिन को दे आती हूं। अब पुरानी देनदारी रहेगी बस और पांच हज़ार की। वह मन ही मन बुदबुदा रही थी, कि तभी पलक झपकते ही खोली के खुले दरवाजे पर मकान मालकिन, जगत चाची प्रकट हुई और बिजली की गति से उसने देखते ही देखते चौकी पर रखे और शन्नो के हाथ में थमे रुपए झपट कर ले लिए और कर्कश स्वरों में उससे बोली, “री शन्नो, कमाकर लाती है दस हज़ार और मुझे देने के नाम पर बस उसके आधे? दो सालों से उधारी है तेरे ऊपर। बड़ी चंट है री तू तो।”

“चल, अब पिछले दो बरसों की पुरानी देनदारी खत्म। बस अब इस बरस का बकाया बचा।”

“चाची, चाची रहम करो मुझ पर। आप बस पांच हज़ार अभी ले जाओ। इन बाकी के रुपयों से मुझे पूरा महीना निकालना है। आज तो अभी पांच तारीख ही हुई है। अभी मुझे कोई एडवांस भी नहीं देगा। पूरा महीना कैसे चलाऊंगी”, शन्नो ने कातर स्वरों में कलपते हुए अपनी मकान मालकिन से कहा।

लेकिन वह तो पूरे दस हज़ार मुट्ठी में बांध वहां से भाग छूटी।

अवश लाचारगी से शन्नो की आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ आया, और वह कटे वृक्ष की भांति धम्म से जमीन पर बैठ गई।

तभी वस्तु स्थिति का भान करके उसकी बेटी चिल्लाई, “अम्मा, यह चाची तो सारे पैसे ले गई। मैं मीठे पीले चावल स्कूल कैसे ले जाऊंगी? बारह बजे मुझे स्कूल जाना है।”

“मीठे चावल? सपने देखने छोड़ दे री छोरी। अब कोई पीले चावल ना बना रही मैं अब। हम गरीबन का कैसा बसंत री? हमारे लिए तो हमारी पूरी की पूरी जिंदगानी ही पतझड़ होए है,”

और वह हो हो कर बेटी को अपने कलेजे से लगा रो पड़ी।

थोड़ी देर आंसू बहा हल्की हो वह बेटी से बोली, “चल बिटिया, मैं जरा एक नंबर की मालकिन को सारी बातें बता कर जाकर उनसे पैसे मांगती हूं। मैं तो भूखी रह लूंगी, पर तुझे तो भूखे पेट रहने की आदत नहीं है न। वह बहुत बड़े दिल वाली हैं। तो थोड़े रुपए तो एडवांस में दे ही देंगी।”

थोड़ी देर बाद ही वहां से हजार रुपए का एडवांस ले अपनी बेटी के लिए पूरे पच्चीस रुपयों के पाव भर बासमती चावल, पांच रुपयों का इलायची का पैकेट और पांच पांच रुपयों के किशमिश काजू और बादाम के पैकेट के साथ शन्नो दौड़ती भागती अपनी खोली में पहुंची।

“चल री लाडो, देख, तेरे लिए ये मेवा डालकर इतने बढ़िया मीठे चावल बनाऊंगी, कि तू भी क्या याद करेगी। जी भर के खइयो ये मीठे चावल। तेरे टिफ़िन और अभी के खाने में बस यही बनाऊंगी।”

हांडी में चावल चढ़ा दोनों मां बेटी चहक उठीं।

मीठे पीले पुलाव की भीनी भीनी खुशबू से खोली महक उठी थी।

भर पेट ज़ायकेदार मीठे चावलों का ख्याल कर भागो के तन मन में तरंग उठ रही थी।

उसे लग रहा था, आखिर बसंत आ ही गया।