अब पछताए क्या होत

"अजीत, अजीत जरा यहां आना एक मिनट के लिए,"नेहुल ने अपने बेडरूम से बाहर ड्राइंग रूम में अपने करीबी दोस्त के साथ शतरंज की बाजी खेलते हुए अपने पति अजीत को आवाज दी, लेकिन उसकी ओर से कोई जवाब नहीं आया। हारकर उसने फिर से उसे पुकारा "अजीत, अजीत तनिक सुनो तो। कुछ जरूरी बात है।"

"नेहुल, बेहद इंट्रेस्टिंग बाजी चल रही है। थोड़ा रुको, बाजी खत्म होने दो फिर आता हूं।"

"थोड़ा कुछ और चटपटा नमकीन बनवाऊँ क्या यार? इस नमकीन के साथ कुछ मजा नहीं आ रहा।"

" हां, बनवा लो", दोस्त ने शतरंज की अगली चाल के बारे में सोचते हुए जवाब दिया।

"नेहुल, प्लीज, जरा ड्रिंक्स के साथ कुछ और चटपटा सा नमकीन बना दो," और यह सुन कर क्रोध से नेहुल का पारा चढ़ गया।

उसने सुबह ही पति से कह दिया था, "आज अपनी शादी की चौथी वर्षगांठ है। प्लीज, आज के दिन किसी दोस्त को मत बुलाना," लेकिन आज तो अजीत का दोस्त उसके बिना बुलाए खुद आ धमका और मजाल है कि अजीत दोस्त को शतरंज के लिए ना कर दे। सुबह दस बजे से उन दोनों का खेलना शुरू हुआ था, जो अभी तक बदस्तूर जारी था।

नेहुल ने न जाने कितने दिनों से आज की तैयारी कर रखी थी। अपनी चौथी एनिवर्सरी पर वह और अजीत पूरा दिन समंदर के किनारे हाथों में हाथ डाल लहरों के बीच बिताएंगे, जैसे कि वे विवाह से पहले हर छुट्टी का दिन बिताया करते थे।

उस दिन नेहूल ने कितने मन से खुद अपने हाथों से अजीत का पसंदीदा चाइनीज़ फूड बनाया था और टेबल सजाई थी। अच्छी तरह से मेकअप कर इतने चाव से सजी धजी थी। लेकिन उसे तो उसकी मानो परवाह ही नहीं है। अपने दोस्तों शतरंज और शराब से दीवानगी की हद तक प्यार है। एक नज़र तक नहीं देखा उसे, न उसे न उसकी तैयारियों को।

सुबह से भूख के मारे उसकी अंतड़ियां कुलबुलाने लगी थीं। भूख तो अजीत को भी लग रही होगी लेकिन शतरंज शराब और यार दोस्त मिल जाएं तो दीन दुनिया सबसे बेखबर हो जाता है। यही सब अनर्गल सोचते-सोचते क्रोधावेश से उसकी आंखें छलछला आईं।

तभी उसकी करीबी सहेली अंजुल का फोन आ गया और वह उससे अपना दुखड़ा रोने लगी। कि तभी नेहुल को कुछ आवाज आई और वह उठ कर भागी भागी पति के पास गई, लेकिन वहां जो उसने नज़ारा देखा, वह देख क्रोध के अतिरेक से उसका सर्वांग जल उठा।

अजीत और उसके दोस्त नाश्ते से सजी डाइनिंग टेबल पर पकवानों पर हाथ साफ कर रहे थे। अजीत ने यह भी नहीं सोचा कि नेहुल भी सुबह से उसका इंतजार करते-करते भूखी बैठी होगी।

संवेदनहीनता की पराकाष्ठा थी। घोर गुस्से से उस की आंखों में आंसू उमड़ आए और आंसुओं से धुंधली हो आई आंखों से उसने झपट कर अपना बैग उठाया और मां के घर के लिए रवाना हो गई।

मायके में मां बाबूजी के सामने उसके दिल का गुबार फूटा और उसने उन्हें अजीत के बारे में सब कुछ रोते झींकते बताया और फिर वह उनसे बोली, "अजीत को मेरी बिल्कुल परवाह नहीं है। मैं आज सुबह से भूखी प्यासी इनके साथ नाश्ता करने के लिए बैठी थी लेकिन उसने मुझसे एक बार तक नहीं पूछा कि मैंने नाश्ता कर लिया या नहीं? उल्टे दोस्तों के साथ खा पीकर अब शराब और शतरंज में रमे हुए हैं।"

"छुट्टी के दिन दिन दिन भर मुझे अकेला छोड़कर दोस्तों में लगे रहते हैं। अब मैं वापस घर नहीं जाऊंगी। बाबूजी आप उनसे बातें करिए, या तो यह अपना रवैया बदलें नहीं तो मैं इस बार फैसला करके रहूंगी।"

मां बाबूजी ने उस वक्त तो नेहुल को किसी तरह समझा-बुझाकर शांत कर दिया।

उस दिन दोस्त के जाने के बाद अजित ने नेहुल को कई बार फोन किया लेकिन क्रोध के आवेग में उसने एक बार भी उसका फोन नहीं उठाया। शाम को अजीत नेहुल को लेने ससुराल पहुंचा। नेहुल ने उसे अपना फैसला सुना दिया, "या तो आप अपना रंग ढंग बदल लो, नहीं तो आपके और मेरे रास्ते अलग।"

किसी तरह अजीत के उसे यह आश्वासन देने पर कि अब वह कम से कम घर में दोस्तों के साथ शतरंज और शराब में अपना पूरा समय जाया नहीं करेगा, नेहुल बड़ी मुश्किल से अपने घर वापस आई।

अजीत ने कुछ दिन तो बिना दोस्तों के साथ अड्डे बाजी, शतरंज और शराब के बिताए, लेकिन महीना बीतते बीतते अजीत अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ गया।

वह स्वभाव से बेहद गैर जिम्मेदार, असंवेदनशील और स्वच्छंद प्रवृत्ति का युवक था जिसे किसी प्रकार के बंधन में रहना अस्वीकार्य था।

उस दिन छुट्टी का दिन था। रात के दस बजने आए थे। अजीत दोपहर बारह बजे का घर से निकला अभी तक घर वापस नहीं आया था।

घड़ी की सूइयों के साथ उसका गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था। दस बजते बजते उसके सब्र की इंतिहा हो चुकी थी।

नेहुल सोच रही थी, अजीत एक अच्छे पति की कसौटी पर कहीं से भी तो खरा नहीं उतर पाया था। पिछले चार वर्षों में गृहस्थी चलाने में उसका सहयोग नाम मात्र का रहा था। अपने पैसों से घर का राशन, सब्जी लाना, बिल भरना सब कुछ उसके जिम्मे था। वह भी अच्छे पद पर कार्यरत थी। विवाह से पहले उसने भी सपने सजाए थे जीवन के हर कदम पर पति के भरपूर साथ और सहयोग के। लेकिन शादी के चार वर्ष गुजर जाने पर भी उसका यह सपना मात्र सपना ही रह गया था जो वह रोते कलपते हर लम्हा देख रही थी।

उधर उन्हीं दिनों कोविड 19 के चलते हुए लॉक डाउन के दौरान अजीत की निजी कंपनी में कर्मचारियों की छंटाई हुई और उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा लेकिन इसके बाद भी अजीत की जिंदगी का अंदाज़ नहीं बदला। पुराना ढर्रा बदस्तूर जारी रहा। पहले जहां अपनी तनख्वाह से अपनी और अपने दोस्तों के लिए शराब का इंतजाम करता था वहीं अब वह उनके लिए नेहुल के सामने हाथ फैलाने लगा।

उस दिन तो उसने हद ही कर दी। उस दिन चार तारीख थी। नेहुल एटीएम से रुपए निकालकर बिजली के बिल के लिए अलग रख रही थी कि तभी अजीत ने झपट कर उसके हाथ से वे रुपए छीन लिए और बहुत बेशर्मी से उससे बोला, "ये रुपए तो मुझे चाहिए। आज मुझे होटल में दोस्तों को पार्टी देनी है।"

उस दिन नेहुल उससे बहुत लड़ी। अजीत के व्यक्तित्व का यह पक्ष उसके लिए सर्वथा अचीन्हा और अनजाना था। उसने उससे कहा, "नौकरी जाने से तुम्हारे तो ऐश हो गए हैं। अगर मेरी कमाई से पूरी जिंदगी गुलछर्रे उड़ाने की सोच रहे हो तो यह तुम्हारी बहुत बड़ी भूल है। अगर तुम्हें यह रिश्ता नहीं निभाना तो कोई बात नहीं। मुझे तलाक दे दो, फिर जो चाहे करो", लेकिन नेहुल की इस बात का अजीत पर कोई असर नहीं हुआ था। वह बस बड़ी बेशर्मी से दांत निपोरे हंसता रहा था।

नेहुल ने अपने और अजीत के रिश्ते के बारे में बहुत गंभीरता से सोचा था और बहुत सोच-विचार के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उसका और अजीत का कोई साझा भविष्य नहीं। इस बारे में उसने अपने मां पिता से भी बात की। उन्हें सब कुछ सच सच बताया। सभी की यह राय बनी कि अब इस स्थिति में उनका तलाक ही एकमात्र रास्ता है।

उनकी बेटी पिछले 4 वर्षों से अजीत के साथ घुट घुट कर जी रही थी। अजीत के गैर जिम्मेदार, उश्रंखल स्वभाव की वजह से घोर मानसिक यंत्रणा सह रही थी। उस दिन सभी की एक मत से राय बनी, उन्होंने कितनी बार अजीत को अपने आप को सुधारने का मौका दिया है, पर बस अब और नहीं।

कुछ ही दिनों में उन्होंने अजीत से तलाक की कार्यवाही शुरू करवा दी।

तलाक के लिए आवश्यक उनके अलगाव की अवधि शुरू हो रही थी। उस दिन नेहुल अपने घर से अपना सामान ले जा चुकी थी। नेहुल के जाते ही अजीत को आटे दाल का भाव पता चल गया। उसके जाने के बाद तो वह कुछ दिन अपनी बैंक में पड़े पैसों से किसी तरह गुजारा करता रहा। मंदी के उस दौर में नई नौकरी मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं था।

उस दिन उसके बैंक में कुल हज़ार रुपयों का बैलेंस बचा था। एक तरफ खाली बैंक और खाली जेब तो दूसरी ओर रसोई में खाली फ्रिज और डब्बे उसे मानो मुंह चिढ़ा रहे थे। अब उसे अहसास हो रहा था, उसने नेहुल के साथ कितनी ज़्यादती की थी। उसे महसूस हो रहा था, वह जिस शाखा पर बैठा था, उसने उसी को काट डाला था। लेकिन अब पछताए क्या हासिल होने वाला था?